ये मेरे जज़्बों के बाग़ी पैकर तमाम फ़ौजें,तमाम लश्कर तेरी ख़मोशी की सरहदों पे वो अहदोपैमां की साअतों पे लगा के डेरा अड़े हुए हैं ये चप्पे-चप्पे में घूमते हैं कहीं से कोई सुराग़ आए सफ़ेद परचम को ही दिखाए क़िले का दर ही खुले ज़रा -सा नहीं तो रन ही पड़े खुलासा ये चांदनी कुछ उसी तरह है वही तो माज़ी का रास्ता है वही है शबनम ,वही है कुहरा हवा का छूना उसी तरह का के जब कभी हम निकल पड़े थे न दूरियां थीं ,न फ़ासले थे नहीं तो कमरे में बैठकर ही हज़ार बातें जो हमने की थीं अभी भी वैसा ही लग रहा है मगर अजब-सा ये फ़ासला है अजब है बंदिश ,अजब है वादा न कोई लग्ज़िश ही बेइरादा अगरचे हर शै का है इशारा के तुझसे जाकर मिलूँ दुबारा मगर ये जज़्बों का अलमिया है ये देख ले दिल भरा हुआ है मगर मैं तुझसे नहीं मिला हूँ मगर मैं तुझसे नहीं मिला हूँ ###############
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'