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अक्तूबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
ग़ज़ल जफ़ा भी मैंने न की ,वो भी बेवफ़ा न रहा हर एक रोज़ मिले, फिर भी राब्ता न रहा उसे भी मुझसे बिछड़ने का ग़म ज़रा न हुआ मुझे भी उसकी जफ़ाओं का आसरा न रहा मैं अपने ख़्वाब की चादर में इस क़दर लिपटा था मुन्तज़िर कोई ,एहसास ये ज़रा न  रहा ख़ुशआमदीद क़लम जज़्बों की न कर पाया पलक भी चुभने लगी,अबके रतजगा न रहा दयारे-ज़ात में अपना नफ़ी मैं ख़ुद ही रहा ये और बात बज़ाहिर कभी बुरा न  रहा हज़ार जिस्म बदल के वो मुझसे लिपटा था हवा में ,धूप में ,ख़ुशबू में ,फ़ासला न रहा न जाने क्यूं ही अचानक हुआ है ख़ुश'कुंदन' रहा सहा जो था दुश्मन से भी गिला न रहा *************************
ग़ज़ल ज़िद में आएगा  ज़रा  और ज़ुल्म ढाएगा हाकिमे-शह्र है  कैसे  शिकस्त   खाएगा अभी तो रास्ते यूँ रास्तों से उलझे  हैं राह-रौ कैसे बताए किधर वो जाएगा वो रस्मो-राह से दुनिया के ख़ूब वाक़िफ़ है ज़ख़्म खाएगा ज़रा और मुस्कराएगा  इस आसमाँ को तशफ़्फ़ी न जाने कब होगी हमारा सब्र कहाँ तक वो  आज़माएगा जिसे वो कह के कहे कुछ न और कहना है कहाँ से ढूंढ कर ऐसा वो शेर लाएगा ये और बात के बेहतर ही लोग आएँगे हमारे ऐब मगर कैसे तू गिनाएगा वो तो चेहरे से थका लगता है 'कुन्दन 'लेकिन है ज़रुरत तो ज़रा बोझ और उठाएगा *****************
हमलोग जहाँ पर रहते हैं हमलोग जहाँ पर रहते हैं वो एक अजब-सी दुनिया है कुछ छोटे-छोटे सपने हैं कुछ छोटी-छोटी ख़्वाहिश है हैरत है के ताबीर नहीं  हैरत है के उन ख़्वाहिश का  छोटा-सा,सुबुक-सा भी टुकड़ा पूरा करने की जद्दो- जिहद में कट जाता है हरइक पल  आँखों में अधूरी आस लिए  फिर पलकें ही मुँद जाती हैं पर हर ख़्वाहिश रह जाती है और सपने भी मरते ही नहीं बस जिस्म बदलते रहते हैं बस भेस बदलते रहते हैं शफ़्फ़ाफ़-सी आँखें ,ताज़़ा लहू  दिल जो हैं जवाँ ,जिनमें है उमंग  वो चाल रवानी है जिनमें वो ढंग जवानी है   जिनमें ये सारे सपने ,हर ख़्वाहिश  बस उनका रुख़ कर लेते हैं हमलोग जहाँ पर रहते हैं वो एक अजब-सी दुनिया है  बस्ती तो फ़ना हो जाती है पर ख़्वाब जहाँ मरते ही नहीं ******************
 ग़ज़ल चुप तो रहता हूँ मगर बोलता रहता  है कौन मैं हूँ कमरे में  सरे-राह ये  फिरता   है कौन अपना दस्तार बचाने में था मसरूफ़  ऐसा  मैंने देखा ही नहीं सर को कटाता  है कौन याद भी अब तो नहीं कब के मैं बाहर निकला और सदियों से मेरे कमरे में बैठा है कौन हाकिमे-शह्र ने लगता है के फ़रियाद  सुनी वैसे इस वह्म को सच में भी बदलता है कौन वैसे दूकाँ में मुखौटों से अलग कितने ही जिन्स  लेकिन इस शह्र में अब उनपे लपकता है कौन एक लम्हे को सही इतना लगा दिल के क़रीब मैं समझ भी न सका वो मेरा लगता है कौन इन तमाशों पे बहस ख़ूब  सुना है 'कुन्दन' कोई सोचे तो ज़रा वज्हे-तमाशा  है  कौन ************************
 पहरेदार वो करके काम कुछ-कुछ  मेरी निगरानी भी करता रहा है  मेरी आज़ादियों का ये परिन्दा  अपने ऊपर नज़र से उसकी  इतना बेख़बर भी तो नहीं  मेरी आज़ादियों का ये परिन्दा मगर ये  जानता है उड़ भी नहीं सकता अचानक  इतनी बुलन्दी पर के उसकी नज़रों से हो जाए ओझल अभी इक दौर रूपोश समझौते का है जो  यूँ ही चलता रहेगा वो कुछ-कुछ काम करने का बहाना करके  मेरी आज़ादियों पर  यूँ ही पहरे बिठाता ही रहेगा और मैं भी कुछ-कुछ काम करके उसकी बेख़बर  निगरानी में रहने का बहाना करता रहूँगा मगर इक दौर मुकम्मल वक़्त तो होता नहीं है  कभी तो वो थकेगा कभी तो आँख झपकेगी ही उसकी  बस इक लम्हे की ख़ातिर उसी इक लम्हे की तो मुन्तज़िर है रूपोश ज़ंजीरों में मुक़ैय्यद निहाँ हर दिल की आज़ादी की हसरत ****************
आज भी ज़िन्दगी आज भी धूप में इस क़दर तल्ख़ियाँ जैसे फुटपाथ की ज़िन्दगी का हो सच और बादे-सबा भी गुरेज़ाँ रही जैसे मुफ़लिस से बच-बच के मिलते हैं सब आज भी ज़िन्दगी ने कहीं हार कर आख़िरी साँस ली आज भी फ़ातेहाना तबस्सुम लिए मौत ने कुछ फ़सुर्दा-सी इक रूह पर याँ पे क़ब्ज़ा किया आज भी ज़िन्दगी अपने मामूल पर यूँ ही चलती रही अपने बेबस पलों पे  थकी-सी हुई झुँझलाई हुई आज भी छोटे-छोटे बशर की अना जैसा पहले हुआ मजरूह होती रही आज भी शह्र की सख्त सड़कों पे रिक्शे चले कुछ बसें भी चलीं और कारें चलीं लोग पैदल चले आज के दिन तो ऐसा न कुछ ख़ास था फिर भी लम्हों की तह में ज़रा देर तक चंद बेचैन हलचल हुईं इतनी ख़ामोश-सी इतनी रूपोश-सी ज़िन्दगी के शजर की कोई एक नाज़ुक-सी टहनी ज़रा देर तक बेसबब हिल गई ***************