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जुलाई, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ग़ज़ल

  आँखों में सजाए चलते थे,    पलकों  पे उठाये चलते थे  वो ख़्वाबों की इक नगरी थी ,सब अपने-पराए चलते थे  ऐसा न हुआ  इक लम्हा भी  राहों पे अकेलापन अखरे कुछ दूर तलक तो साथी थे फिर याद के साए चलते थे इन ज़रदारों की दुनिया में हर वक़्त अना मजरूह हुई हम   छोटी-छोटी   बातों के एहसान  उठाए चलते थे   अफ़सानों के ही लोग थे वो ,वो लोग कहानी जैसे थे  बोसीदा  चादर क़दरों की  सीने से  लगाए चलते  थे  इस पुररोशन माहौल में हम क्या टूटी-बिखरी बात करें हाँ, चेहरे थे बीमार से कुछ ,कुछ ज़ख्म छुपाए चलते थे  क्या भूल गए ये याद नहीं ,पर कुछ तो सचमुच  भूले हैं  तुम ही कहना क्या राहों पे हम सर को झुकाए चलते थे  इक ख़्वाब से दीगर ख़्वाब में वो दाख़िल भी हुए क्या चुपके से  ख़ामोश  हुए 'कुंदन ' साहब    कोहराम मचाए   चलते   थे ***************************************

कर्ण की शल्य चिकित्सा और मासूम गोरैय्या

 एक आदमी आजकल मेरा उत्साह तोड़ने में लगे रहते हैं. वे मेरी शल्य-चिकित्सा करते रहते हैं .शल्य-चिकित्सा मतलब जो महाभारत में शल्य कर्ण के साथ करता था .युद्ध में कर्ण का उत्साह-भंजन.मैं हर चीज़ के होने में यक़ीन करता हूँ .वे हर होने वाली चीज़ के न होने में.मैं दीवार को तोड़ देना चाहता हूँ ,उन्हें दीवार के टूट कर अपने सर पर गिर जाने का डर समाया रहता है.मैं अपनी सवा तीन साल की बेटी की मासूम शरारतों से खुश होकर तक़रीबन उछलने लगता हूँ ,वे अपनी बीस साल की बेटी को देख कर डर जाते हैं के कहीं उसने अंतरजातीय विवाह कर लिया तो या तो वे आत्महत्या कर लेंगे या समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे.जीवन की भौतिक  सुरक्षाओं के लिए मेरी उपेक्षाओं से उन्हें डर लगता है .वे अपने लिए तो डरते ही हैं मेरे लिए भी डरे रहते हैं .मुझे बड़ी शर्मिंदगी होती है के अपनी उदारता में अपने विशाल डर में वे मेरे लिए अतिरिक्त डर कोई जोड़ रहे हैं . अपने दृष्टिकोण से वे सही हैं .उनका साथ मेरी रोज़गार की मजबूरी.लेकिन जो बात मैं बताना चाहता हूँ वह यह है के आज मैंने एक गोरैय्या को अपने कमरे में देखा.उत्फुल्ल ,चहकती हुई.हमेशा की तरह

ghazal

पागल हुए जुनूँ में रहे सरफिरे रहे दुनिया को दरकिनार किया हम तेरे रहे  बोझल हुआ जो शौक़ तो कुछ बेहिस्सी रही चटखा जो एतमाद तो कुछ वसवसे रहे   हमराह खो गया तो बनी याद हमसफ़र मंज़िल ने साथ छोड़ा मगर रास्ते रहे  किन ज़िल्लतों की बात करें, किसको दोष दें हमलोग रहगुज़ार पे यूं ही पड़े रहे   क़तरों की तरह वक़्त से लम्हे टपक गए ये और बात जामे -मुहब्बत भरे रहे   उससे न तवक्को थी मगर साथ चल पडा दिलचस्प कुर्बतों में मगर फ़ासले रहे  'कुंदन' बहुत हुआ के चलो रास्ता भी दो बेकार एक ऊम्र तक तुम भी खड़े रहे 

जुस्तजू से अपनी ही - कुमार मुकुल

कर दे यादों को भला कोई खारिज कैसे जुस्तजू से अपनी ही हो कोई आजिज कैसे बीती उमर नदिया तो नहीं कि पलट के पार करे करता हो कोई करे वार करे वार करे

दिल्ली में दोस्तों की महफ़िल और नानक सिंह

दिल्ली आया हुआ था एक मीटिंग के लिए .समीक्षा बैठकों में उच्चाधिकारी  जो आतंक तोड़ते हैं सर पर वह ख़त्म हुआ.वातानुकूलित हौल में बिठाकर और अच्छे केटरर्स के द्वारा स्वादिष्ट शाकाहारी और मांसाहारी भोजन परोस सारी लज़्ज़त को आंकड़ों के गुनाह में तब्दील कर देतें हैं ,उसी गुनाह बेलज्ज़त के बाद बड़े साहब ने सबको ज़लील कर,अपनी अना को मुतमइन कर और सारे हिन्दुस्तान के ठेके को पुख्ता कर विजयी भाव से दोपहर को ही दिल्ली की भीड़ में मुक्त कर दिया. घबड़ाए हुए मन से कुमार मुकुल को  मोबाइल दागा.नेटवर्क साहब नेटवर्क.बात न हो सकी तो धर्मेन्द्र सुशांत था.इंडिया हैबिटेट सेंटर से मंदी हाउस पहुँच गया और नेपाली दूतावास के बाहर पेवमेंट पर फ़ाइल रख उसपर बैठकर  धर्मेन्द्र सुशांत का इंतज़ार करने लगा.फिर उकताकर संगीत भारती के सामने खड़ा हो गया.विचित्र वेशभूषा में लड़के-लडकियां ,अधेड़ -बुज़ुर्ग,अलग-अलग शेप साईज के-ज़्यादातर खाए-पीये और कहीं और खाने-पीने की ख़्वाहिश रखनेवाले चर्बी की बहुतायत से भरे लोग.फिर धर्मेन्द्र सुशांत आया भटकता हुआ और हम साहित्य अकेडमी चले गए वातानुकूलित किताब घर में बैठने.वहाँ साहित्य की बड़ी

बात करनी हमें मुश्किल कभी ऐसी तो न थी .....

तबीयत हो रही है के अपनी घबडाई हुई तबीयत पर कुछ लिखूं .लेकिन क्या लिखूं समझ में नहीं आ रहा .आजकल नैशनल और इंटरनैशनल मार्केट में फल ,सब्जी,किताब ,अनाज नहीं बिकते jargon बिकते हैं.शब्दकोष  में jargon के मायने जो भी हों -यह एक विशेष बिकाऊ और अचंभित कर देने वाली शब्दावली ज़रूर है.यह दरअसल भाषा और व्यक्तित्व का special effects है.सरकारी विश्व का अपना  jargon  है और कोर्पोरेट जगत का अपना    jargon ."अधोहस्ताक्षरी " ,"घटनोत्तर स्वीकृति","भवदीय अनुमोदन " सरकारी जारगन हैं जबकि TOT (training of trainers),MOM(minutes of meeting),KT(knowledge transfer),mood,aspect इत्यादि कोर्पोरेट जारगन . एक आम आदमी इन जारगंस के बीच में ज़बरदस्त ढंग से फंसा है .फिर न्याय का अपना जारगन है और इंसाफ़ का अपना जारगन.आम आदमी सिवाय चौंकने के कुछ भी नहीं कर सकता. वह बेवकूफ़ सिर्फ़ बोलचाल की भाषा का सहारा लेता है .बाप को बहुत हुआ तो पापा या डैडी बोल लेता है .बाप को इस जार्गन के जगत में CPGF भी कहा जा सकता है --Centre of Power in a Group of Persons.सरकारी कर्मचारी  और पदाधिकारी इन्हीं जार्गन क