एक चेहरा कहीं कोई धुंधला-सा था / एक पैकर था वो भी था मुब्हम बहुत / कितनी मुद्दत से बस एक ही थी हवस / किस जतन से उसे साफ़ कर देख लूं/ एक शक अपनी नज़रों पे भी था मुझे / शायद आँखें ही धुंधला गयीं हो मेरी / ज़िंदगी भर इसी एक कोशिश में था / ऐसे मौक़े भी आये इसी दरम्याँ/ जब लगा मैंने भरपूर देखा उसे / जिसमें फ़ितरत की हर एक शै थी निहां / इक ज़रा नीलगूं ,इक ज़रा सब्ज़ था / कुछ अलाव की गर्मी,हवा याद की/ ऐसे चेहरे की,पैकर की तशरीह क्या / जिसको अलफ़ाज़ में बाँध सकते नहीं / पर वहम था के देखा है उसको कहीं / एक धुंधली झलक, एक...
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'