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फ़रवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

घूमो तो दुनिया मेला है ...

हमको भी लगता था ऐसा / कुछ लिख लेंगे,कुछ पढ़ लेंगे / इस भागती-दौड़ती दुनिया में / हम चार क़दम भी बढ़  लेंगे / अपनी इन जागती आँखों में / सपना जैसा इक सपना था / बेगानों की इस भीड़ में भी / लगता था कोई अपना था/ हमने भी वहम कुछ पाले थे / हमको भी कुछ खुशफहमियाँ थीं / महलों में तसव्वुर के कितनी / ख्वाबीदा-सी शहज़ादियां थीं/ दुनिया तो बहुत आसान-सी थी / क़दमों में रवानी,राहें सहल / सब कुछ अपना-सा लगता था/ सोये लम्हे या जागते पल / वो कमसिनी के कुछ क़िस्से थे/ वो बचपन की कुछ बातें थीं/ वो सादादिली का अफ़साना / वो इश्क़ की नाज़ुक ग़ज़लें थीं/ और वक़्त ने एक लम्हा यकदम / इक ऐसी भीड़ में ला पटका/ नाआशना था हर शख्श जहां / हर शख्श जहां पर तनहा था/ था कौन यहाँ दिल का साथी / एहसास से कैसा रिश्ता था/ बस उनको ही सब मानते थे / जो ज़ाहिर था,जो दिखता था/ अपनी थी ख़्वाबों की दुनिया / अपनी थी ख़लाओं की धरती / अपनी थी जसामत कोई नहीं/ लोहा,सोना,पत्थर ,मिट्टी / फिर भी तो सुकूँ इस बात का है/ सब चलता है,सब चलता है / कातिल हो,ताजिर हो ,शैदा / सब अपनी आग में जलता है/ आंसू हो हंसी ,दुख हो ,सुख हो / सबका...

घूमो तो दुनिया मेला है ...

हमको भी लगता था ऐसा / कुछ लिख लेंगे,कुछ पढ़ लेंगे / इस भागती-दौड़ती दुनिया में / हम चार क़दम भी बढ़  लेंगे / अपनी इन जागती आँखों में / सपना जैसा इक सपना था / बेगानों की इस भीड़ में भी / लगता था कोई अपना था/ हमने भी वहम कुछ पाले थे / हमको भी कुछ खुशफहमियाँ थीं / महलों में तसव्वुर के कितनी / ख्वाबीदा-सी शहज़ादियां थीं/ दुनिया तो बहुत आसान-सी थी / क़दमों में रवानी,राहें सहल / सब कुछ अपना-सा लगता था/ सोये लम्हे या जागते पल / वो कमसिनी के कुछ क़िस्से थे/ वो बचपन की कुछ बातें थीं/ वो सादादिली का अफ़साना / वो इश्क़ की नाज़ुक ग़ज़लें थीं/ और वक़्त ने एक लम्हा यकदम / इक ऐसी भीड़ में ला पटका/ नाआशना था हर शख्श जहां / हर शख्श जहां पर तनहा था/ था कौन यहाँ दिल का साथी / एहसास से कैसा रिश्ता था/ बस उनको ही सब मानते थे / जो ज़ाहिर था,जो दिखता था/ अपनी थी ख़्वाबों की दुनिया / अपनी थी ख़लाओं की धरती / अपनी थी जसामत कोई नहीं/ लोहा,सोना,पत्थर ,मिट्टी / फिर भी तो सुकूँ इस बात का है/ सब चलता है,सब चलता है / कातिल हो,ताजिर हो ,शैदा / सब अपनी आग में जलता है/ आंसू हो हंसी ,दुख हो ,सुख हो / सबका...

चंद ही रोज़ की क़िस्मत है ......

किसी ख़ुशबू की तरह आ के बिखर जाती है / इक  उदासी  मेरे आँगन में बिखर जाती है  / चंद बेबूझ तमन्नाओं की होती है निशस्त  / जाने क्या सोचता रहता है ये बूढा-सा दरख़्त / आस्मां एक वरक़,चाँद की हल्की-सी लकीर / रात के सीने में पेवस्त धुंए  की   शमशीर / चंद बदरंग मकां, हाँफते दर और दीवार  / खिड़कियाँ परदों से उलझी हुईं ,कमरे बेज़ार / दूर से आती  हुई  रिक्शे  की बेकल घंटी   / और शराबी की वही गालियाँ कुछ फाहश-सी / जाने से बिजली के हर ओर अन्धेरा वो दबीज़ / याद आ जाना अचानक कोई भूली हुई चीज़ / आस्मां तारों के ज़रिये से कोई करता सवाल / और सीने में ज़मीं के कोई गहरा-सा मलाल / मेरा  बेचैनी  से कमरे  में टहलना  यूं ही    / अपनी नाअहली पे ग़ुस्से से उबलना यूं ही / सुब्ह से शाम तक हर शख्श के चेहरे पे सवाल / नारसा ज़िंदगी  ,हर एक तमन्ना बेहाल / सारे मंज़र पे अजब एक मुलम्मा चस्पां / भीड़ में देखिये हर शख्श का चेहरा वीराँ  / पर चटानों से कोई बूँद फिसलती सी है / ज़िंदगी जैसे हों  हालात,बहलती ही है / आलमे...