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आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी

  मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मुझे क्या हो रहा है .दरअसल मैं कुछ असली ,कुछ ख़ालिस खोजने के फ़िराक में हूँ.और यह खोज बड़ी मुश्किल होती चली जा रही है.बेशर्मी इस क़दर है कि जो  किसी चीज़ के लिए जितना प्रतिबद्ध ,जितना कमिटेड होने का स्वांग रच रहा है वह उसी चीज़ को किसी पक्के दलाल की तरह हज़ारों बार बेच रहा है .उसी की खा रहा है .और इतनी गंभीरता ओढ़े रहते हैं कि आपको हिम्मत नहीं होगी कि कह सकें कि क्यों मज़ाक़ कर रहे हो यार ,हाथों में गजरा और गले में लाल रुमाल बाँध कर क्यों नहीं अपने असली रूप में आ जाते हो .कविता ,जाति,देशभक्ति ,अगड़े ,पिछड़े ,ग़रीबों ,महिलाओं कोई भी विषय हो उसके एक्सपर्ट और जांनिसार बनकर उसको पूरा एक्सपोज़ कर ,पूरा उत्तेजक बनाकर बेचने के पीछे पड़े हो यार .बेशर्मी की हद है.लगता है खालिस खोजना छोड़ दूं या इन स्वतः घोषित या सर्वमान्य विषय विशेषज्ञों में तो उसे नहीं ही ढूंढूं .पहले तो हंसी आती है अब बक़ौल चचा ग़ालिब वह भी नहीं आती --- "आगे आती थी हाले- दिल  पे हंसी / अब किसी बात पर नहीं आती /"       

ग़ज़ल

कौन किसी की बात को रक्खे कौन किसी का ध्यान रखे  कौन आगे  इन  बोझल  पांवों  के  रस्ता   आसान   रखे  अपने  लहू में  किसकी  आहट  हर लम्हा  हम  सुनते  हैं कौन  है  जो  सूखे  होठों  पे  हर  लम्हा  मुस्कान   रखे हुस्न का मतलब रेशमी ज़ुल्फें हुस्न के माने नाज़ुक लब ऐसी   नाबीना   तश्बीहें    हमको   बस   हैरान    रखे  हमको मसीहाई लगता है फ़न ये ग़ज़ल कह लेने का  शेर  वही  ख़ालिस  है  शायद  मुर्दों में जो जान रखे  तुम भी कहीं हो बेकल-बेकल,रात भी है भारी-भारी  नींद भी हमसे आज ख़फ़ा है कौन हमारा ध्यान रखे  दिल की बात क़लम तक आकर अक्सर-ही रुक जाती है  कौन भला पत्थर में आकर नन्हीं-सी इक जान रखे  काँपते हाथों में नाज़ुक-सा ख्वाब संभाले रह जाए  और इससे ज़्यादा भी 'कुंदन' क्या कोई अरमान रखे  ******************************             ...

बुलबुले

कुछ आवाज़ों की ख़ामोशी कुछ ख़ामोशी की आवाजें  सुनकर मैं हैरान हुआ हूँ  वक़्त के आँगन में कैसे ये  कच्ची पक्की आवाजों की  धूप के साए जिस्म से छनकर  दिल में उतरते  सर्द से लम्हों को कुछ  गर्मी देकर खो जाते हैं  लड़ती-झगड़ती ये आवाजें  बचपन की कुछ आवाजों का  दौड़ते रहना  मुड-मुड़कर कुछ मुँह का चिढ़ाना और बालों की थकी-थकी-सी  सर्द सफ़ेदी मन-ही-मन में सोचती रहतीं  आवाजों का  गुथ्म्गुथ्था होते जाना  कितना कुछ है हमने बोला  कितना कुछ ख़ामोश रहे हैं  साबुन के पानी को लेकर  नन्हा-सा,छोटा-सा बच्चा  पानी से रंगीन बुलबुले  बना रहा है  ख़ुश होता है  और बुलबुले आवाज़ों के  फूटते और बनते रहते हैं  **********************