आँखों में सजाए चलते थे, पलकों पे उठाये चलते थे वो ख़्वाबों की इक नगरी थी ,सब अपने-पराए चलते थे ऐसा न हुआ इक लम्हा भी राहों पे अकेलापन अखरे कुछ दूर तलक तो साथी थे फिर याद के साए चलते थे इन ज़रदारों की दुनिया में हर वक़्त अना मजरूह हुई हम छोटी-छोटी बातों के एहसान उठाए चलते थे अफ़सानों के ही लोग थे वो ,वो लोग कहानी जैसे थे बोसीदा चादर क़दरों की सीने से लगाए चलते थे इस पुररोशन माहौल में हम क्या टूटी-बिखरी बात करें हाँ, चेहरे थे बीमार से कुछ ,कुछ ज़ख्म छुपाए चलते थे क्या भूल गए ये याद नहीं ,पर कुछ तो सचमुच भूले हैं तुम ही कहना क्या राहों पे हम सर को झुकाए चलते थे इक ख़्वाब से दीगर ख़्वाब में वो दाख़िल भी हुए क्या चुपके से ख़ामोश हुए 'कुंदन ' साहब कोहराम मचाए चलते थे ***************************************
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'