कमलेश |
प्रेम
अगिन में
टन-टन-टन।
घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी छोटन
तिवारी की। बाप रे। शाम में मंदिर में आरती शुरू हो गई और उन्हें पता भी नहीं चला।
तीन घंटे कैसे कट गये। अब तो दोनों जगह मार पड़ने की पूरी आशंका। गुरुजी पहले तो घर
पर बतायेंगे कि छोटन तिवारी दोपहर के बाद मंदिर आये ही नहीं। मतलब घर पहुंचते ही
बाबूजी का पहला सवाल- दोपहर के बाद मंदिर से कहां गायब हो गया? इसके
बाद जो भी हाथ में मिलेगा उससे जमकर थुराई। फिर कल जब वह मंदिर पहुंचेंगे तो
गुरुजी कुटम्मस करेंगे। कोई बात नहीं। मार खायेंगे तो खायेंगे लेकिन आज का आनन्द
हाथ से कैसे जाने देते।
एक बजे वह यहां आये थे और शाम के चार
बज गये। लेकिन लग यही रहा था कि वह थोड़ी ही देर पहले तो आये थे। वह तो मानो दूसरे
ही लोक में थे। पंचायत भवन की खिड़की के उस पार का दृश्य देखने के लिए तो उन्होंने
कितने दिन इंतजार किया। पूरे खरमास एक-एक दिन गिना। लगन आया तो लगा जैसे उनकी ही
शादी होने वाली हो। इसे ऐसे ही कैसे छोड़ देते। पंचायत भवन में ही ठहरती है गांव
आने वाली कोई भी बारात और इसी के एक कमरे में रुकती है नाच पार्टी। नाच पार्टी
अपने साथ लैला मजनूं वाला नाटक भी लेकर आती है। इस नाच के लिए तो वह कुछ भी छोड़
सकते है। अपना घर-बार भी। अभी भी तो वह नाच पार्टी को ही सजते हुए देख रहे थे।
वैसे नाच पार्टी के बाकी कलाकारों में उनकी कोई रुचि नहीं थी। उनके लिए तो केवल एक
ही कलाकार था जो पूरी नाच पार्टी लूट लेता था। और वह था- बेचन लवंडा। आहा। क्या
नाचता है। अप्सरा भी फेल है। और सुन्दरता कैसी। चेहरे पर आंख जमाओ तो हटाने का मन
ही नहीं करे। बड़ी-बड़ी आंखें, तीखी
नाक, पतले होंठ और चकचक उजले दांत।
दरमियाना कद और सांवली-सलोनी पतली-दुबली देह। जब बेचन लहरा कर चलता तो देखने वालों
के कलेजे पर सांप लोट जाता। जब वह लहंगा-चोली पहनकर और माथे पर सलमा-सितारे टांककर
नाचने के लिए उतरता तो लोगों की जेब में जो भी होता उस पर लुटा देते। वह अपनी
बड़ी-बड़ी आंखों को नचाकर जिसे भी देख लेता वह उसी का होकर रह जाता।
जवानी की दहलीज पर पांव रख रहे 17 साल के
छोटन तिवारी उसे देखने के लिए कुछ भी कर सकते थे। कई बार रात में चुप्पे-चोरी घर
से निकल कर उसका नाच देखने पहुंच जाते। एक बार तो गांव के बड़े लड़कों ने देख लिया
और जाकर घर पर शिकायत कर दी। इसके बाद तो बाबूजी ने जो पिटाई की थी कि पांच दिनों
तक पोर-पोर दर्द करता रहा। लेकिन जैसे ही ठीक हुए यह पता करने में जुट गये कि बेचन
लवंडा का नाच अगली बार किस गांव में होने वाला है। उसके नाम पर पांच-पांच कोस तो
वह पैदल चले जाते हैं।
बंसलोचन तिवारी के इकलौते बेटे हैं
छोटन तिवारी। असली नाम तो शिवचरण तिवारी है लेकिन मां ने प्यार से छोटन कहना शुरू
किया तो पूरे गांव में छोटन तिवारी के नाम से मशहूर हो गये। अब वह भी किसी को अपना
असली नाम नहीं बताते। असली नाम बोलिये तो गांव में कोई पहचान भी नहीं पायेगा। पिता
बंसलोचन तिवारी भगवान शंकर के जबर्दस्त भक्त। वेद-पुराण के ज्ञाता। ज्योतिष के
धुरंधर। दूर-दूर से लोग अपनी कुंडली लेकर आते। नियम के इतने पक्के कि जिस घर से
लहसुन-प्याज तक की गंध आ जाती उसके घर का पानी भी नहीं पीते। वैसे भी वह
अपना तांबे का पात्र लेकर चलते। उसी में पानी पीते। सुबह में नहा-धोकर पूजा पर बैठते
तो क्या मजाल कि चार घंटे के पहले उठ जाएं। जब महामृत्युंजय मंत्र का सस्वर पाठ
करते तो आसपास के घर भी पवित्र हो जाते। इन सबके बावजूद बेटे के लिए तरस रहे थे।
एक के बाद एक लगातार तीन बेटियों का जन्म हो चुका था। अंत में तिवारीजी अपनी पत्नी
के साथ कांवर लेकर पैदल देवघर गये। बाबा वैद्यनाथ को जल चढ़ाया और कहा कि इस बार
बेटा नहीं दिया तो पूजा पाठ सब छोड़ देंगे। बाबा वैद्यनाथ ने सुन लिया और छोटन
तिवारी घर में आ गये। तीन बेटियों के बाद जन्म हुआ था लिहाजा मां तो आंखों
से दूर ही नहीं होने देना चाहती थी। बंसलोचन तिवारी भी घर में जैसे ही आते अपने
बेटे को ही खोजते। लेकिन छोटन तिवारी को तो मानो भगवान शंकर ने किसी अलग सांचे में
ही ढ़ाला था। उनका कोई भी गुण अपने पिता से नहीं मिलता। पिता जितने संस्कारी, छोटन
तिवारी उतने ही तमोगुणी। जब छोटे थे तो चटक-मटक खाने के लिए घर से पैसा भी चुरा
लेते। दस साल की उम्र तक चाट-पकौड़े की दुकानों पर हजारों उड़ा चुके थे। सिनेमा
देखने के लिए बार-बार भागकर बक्सर पहुंचना तो मानो आदत में शामिल था। पिता हर समय
कुछ न कुछ पढ़ते रहते तो छोटन को किताबों से नफरत थी। 15 साल की
उमर तक पहुंचते-पहुंचते गांजा-भांग से लेकर शराब तक का स्वाद चख चुके थे।
पहले तो प्यार-दुलार में स्कूल नहीं
गये और जब गये तो फेल होने का सिलसिला जैसे उनकी किस्मत में लिखा था। नतीजा यह हुआ
कि 17 साल की उमर हो गई और तीन बार फेल
होने के बावजूद अभी तक दसवी कक्षा की सीमा नहीं पार कर पाये। बंसलोचन तिवारी ने
मान लिया कि इसका मैट्रिक पास होना असंभव है। उन्होंने उनका स्कूल छुड़ाया और ले
जाकर गांव के मंदिर में बैठा दिया। वहां के पुजारीजी अब छोटन तिवारी के गुरुजी थे।
बड़े सख्त और अनुशासन के पक्के। बंसलोचन तिवारी के एकदम भक्त। बंसलोचन तिवारी ने
उन्हें खास निर्देश दे रखा था कि छोटन की किसी गलती को
बख्शना नहीं है। गलती चाहे कैसी भी हो उसके लिए मंदिर में रखी छड़ी काम आती। छोटन
तिवारी का काम था- मंदिर के अहाते में बैठकर रामचरित मानस का सस्वर पाठ करना।
मंदिर आने-जाने वाले भक्त रामचरित मानस पर कुछ पैसे चढ़ा देते और यही छोटन तिवारी
की आय थी। पहले तो इस आय के लोभ में छोटन तिवारी मंदिर में बैठे लेकिन जल्दी ही
उनकी समझ में आ गया कि दिन भर मंदिर में बैठकर रामचरित मानस पढ़ने से मां के बक्से
से पैसा निकालना ज्यादा लाभदायक है।
कुछ
दिनों तक बंसलोचन तिवारी ने उनकी सारी बदमाशियां यह सोचकर सह ली कि बेटा आज नहीं
तो कल सुधर जाएगा। लेकिन उस दिन सब्र का बांध टूट गया जब उन्हें पता चला कि बगल के
सुमिरन सिंह की साइकिल उन्होंने बेच डाली और जो पैसे मिले उससे बक्सर जाकर हाफ
गर्लफ्रेंड सिनेमा देख आये। उस दिन पिता जैसे तांडव करने पर उतर आये। पतले-दुबले
छोटन तिवारी को लंबे- चौड़े बंसलोचन तिवारी ने उठाकर पटक दिया और छाती पर चढ़ गये।
इसके बाद हाथ-पांव जिससे भी मन किया उससे कूटना शुरू किया। छोटन तिवारी तो ऐसे
चिल्ला रहे थे जैसे किसी बकरे को हलाल किया जा रहा हो। लेकिन बाप का मन नहीं
पसीजा। उन्होंने अपनी बकुली उठा ली और दे दना दन। बकुली टूट गई तो पास में पड़े
बांस को उठा लिया। वह तो मां हाय-हाय करते हुए छोटन तिवारी के ऊपर गिर पड़ी वरना
ऐसा लग रहा था कि आज तो बंसलोचन तिवारी पुत्रवध का पाप करके ही मानेंगे। इस पिटाई
के बाद छोटन तिवारी कुछ दिनों तक बिस्तर से उठ ही नहीं पाये लेकिन जब उठे तो इस
मार को ऐसे भूल गये जैसे ढीठ बैल हलवाहे की मार भूल जाता है। बंसलोचन तिवारी ने भी
मान लिया था कि यह लड़का हाथ से गया। अब तो उन्होंने पहले से जमा धन संपत्ति को भी
धार्मिक कार्यों में खर्च करना शुरू कर दिया था। उन्हें मालूम था कि उनके मरने के
बाद छोटन जर-जमीन सब बेच देगा- पूत कपूत तो का धन संचय, पूत
सपूत तो का धन संचय।
जब पिता-पुत्र के बीच यह जंग चल रही
थी उसी दौरान गांव में आई एक बारात में छोटन तिवारी ने देखा था बेचन लवंडा को।
पहले तो उनका मन यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हुआ कि यह कोई मर्द है। भला कोई
मर्द भी इतना सुन्दर हो सकता है क्या? उनका
युवा हो रहा दिल पहली बार किसी के लिए धड़का। पूरी रात उसका नाच देखते रहे और उसकी
एक-एक अदा पर निहाल होते रहे। यही नहीं भोरे भोरे वे उस पंचायत भवन का चक्कर मारने
भी पहुंच गये जहां नाच पार्टी के कलाकारों के ठहरने का इंतजाम था। इसी दौरान जब
उन्होंने बेचन को कुरता पाजामा पहने देखा तो उन्हें मानने के लिए विवश होना पड़ा कि
मर्द की अदाएं भी जानलेवा हो सकती हैं। बेचन ने उन्हें देखा तो अपनी बांई आंख दबाई
और एक हवाई चुम्बन उनकी तरफ उछाल दिया। छोटन हुलस कर रह गये।
बेचन को भले उन्होंने उसके असली रूप
में देख लिया था लेकिन उसका स्त्री रूप उनकी आंखों के सामने से नहीं हटा। इस रूप
ने तो जैसे उनका सुख-चैन सब छीन लिया था। उनके स्कूल में कई लड़कियां भी पढ़ती थी
लेकिन किसी लड़की की आंखों ने उन्हें इस कदर नहीं बांधा जैसे बेचन की आंखों ने बांध
लिया था। अगली रात को फिर छोटन तिवारी नाच देखने पहुंचे और सबके आगे बैठ गये। बेचन
लवंडा लहंगा और चोली पहनकर उतरा तो छोटन जैसे वशीकरण मंत्र से बंध गये। उनकी आंखें
उस पर ठहर गई। बेचन ने उन्हें अपनी ओर टकटकी बांधे देखा और मुस्कुरा दिया। इसके
बाद उसने गाना शुरू किया- नजर मारेला हो नजर मारेला, अइसन
चढ़ल बा जवनिया नजर मारेला...।
गाने के ही दौरान जब बेचन ने उन्हें
देखकर पूरे मिजाज से आंख मारी तो छोटन तिवारी तो बस लुट गये। लगभग 27-28 साल के
बेचन लवंडा ने भी समझ लिया कि यह कांच कुंआर लड़का कुछ ज्यादा ही लट्टू हुआ जा रहा
है। नाचते-नाचते वह एक बार जाकर उनसे सट गया और छोटन तिवारी को लगा कि वह तो इस
दुनिया में हैं ही नहीं। बेचन इतने भर से कहां मानने वाला था। उसने ओढ़नी उनके ऊपर
ओढ़ा दी और खुद भी उसमें घुस गया। छोटन ने उसी दिन मां के बक्से से तीन सौ रुपये
निकाले थे। पचास रुपये पान वाले को दिये थे और बाकी के सारे ढ़ाई सौ रुपये उन्होंने
बेचन के नाम कर दिये। इस घटना के गुजरने के कई दिनों बाद तक वह बेचन के स्पर्श का
आनन्द महसूस करते रहे।
बेचन पूरे इलाके का अकेला लवंडा था।
दूर-दराज के इलाकों तक में अपनी अदाओं के लिए मशहूर। सुदर्शन ठाकुर की नाच पार्टी
भी अकेली पार्टी। बहुआरा ही नहीं आसपास के गांवों में भी शादी-विवाह होता तो यही
नाच पार्टी जाती। छोटन तिवारी भी पिछले एक साल से लगन का इंतजार कर रहे थे। उन्हें
पता था कि इस बार गांव में तीन-चार घरों में शादी है। शादी है तो नाच पार्टी आएगी
और नाच पार्टी आएगी तो बेचन लवंडा भी आएगा। वह कई बार सोचते कि वह भी लवंडा बन जाए
और सुदर्शन ठाकुर की नाच पार्टी में शामिल हो जाएं। इससे वे हमेशा बेचन के साथ रह
पाएंगे। वह अक्सर बेचन की नकल भी करने लगते। कई बार अपने कमरे का दरवाजा बंद लेते
और बहनों के कपड़े पहन कर बेचन लवंडा की तरह नाचने की कोशिश करते। उन्होंने अपने
बाल लम्बे रख लिये थे और अक्सर रात में लोगों से छुप छुपा कर कान में बाली
और नाक में नथनी भी पहनने की कोशिश करते। इस क्रम में उन्होंने कई बार अपनी नाक और
कान को लहूलुहान भी कर लिया था। चलने के दौरान वे अपनी कमर भी लचका लेते और
दोस्तों को आंख भी मारने लगे थे। हाथों को उसी तरह नचा-नचाकर बात करने की कोशिश
करते जैसे बेचन करता था। उनकी कोशिश रंग लाने लगी और एक बार उनके दोस्त ने उनकी
कमर में हाथ डालते हुए कह भी दिया- “अरे
छोटना, तुम्हारी कमर तो साली एकदम लड़कियों
की कमर की तरह लगती है यार।”
कमाल की बात है कि छोटन तिवारी को
उसकी बात एकदम खराब नहीं लगी। उन्हें तो अपने दोस्त की बात पर लगा कि कोई उनकी
तारीफ कर रहा है। लेकिन एक दिन तो गजब हो गया। उस दिन वह मां की साड़ी पहन कर बेचन
की तरह नाचने का अभ्यास कर रहे थे। दरवाजा तो उन्होंने बंद कर लिया था लेकिन गलती
से खिड़की खुली रह गई थी। उन्होंने गाना शुरू किया- “नजर
मारेला हो नजर मारेला.....।”
अजीब
संयोग कि इधर उनके मुंह से गाने के बोल निकले और उधर से बंसलोचन तिवारी खिड़की की
तरफ आये। गाने ने उनका ध्यान खींचा और उन्होंने खिड़की से अंदर झांका। अंदर
के दृश्य ने उन्हें भीतर तक हिला दिया। उनका पारा आसमान पर। वहीं से चिल्लाये- “अरे
ब्राह्मण होकर जनखा का काम कर रहा है रे कलंकी। अब यही बाकी रह गया था रे। ठहर
तुझे बताता हूं।”
इसके बाद तो जबर्दस्ती किवाड़ खुलवाकर
उनकी जो पिटाई की थी कि छोटन तिवारी कई दिनों तक आह-आह करते रहे।
बहरहाल छोटन तिवारी ने आज पंचायत भवन
की खिड़की से नजर भरकर बेचन को सजते हुए देखा था। उसे लहंगा-चोली पहनने से लेकर
नकली बाल लगाने तक। उसे ललाट पर सलमा-सितारे लगाने से लेकर होठों को रंगने तक।
पूरे तीन घंटे तक उनकी आंखों के सामने था वह जो अक्सर रात को उनके सपनों में आकर
उन्हें जगा देता था। लेकिन मंदिर की घंटी ने उन्हें बता दिया कि अगर अभी घर नहीं
पहुंचे तो रात में नाच देखने का मौका भी नहीं मिलेगा। वह वापस जाने के लिए घूमे और
कुछ खटका हुआ। आवाज पर बेचन घूमा और खिड़की पर खड़े उन्हें देखा। वह मुस्कुराया और
अपनी बांई आंख दबा दी। छोटन तिवारी के मुंह से आह निकल गई। उनके कदम अब कहां आगे
बढ़ने वाले थे। वे फिर खिड़की से सट गये। बेचन उठा और लहराते हुए खिड़की के पास आया।
फिर उसने बड़ी अदा से सरसराती हुई आवाज में कहा- “क्या
पंडितजी, कब से नजारा मार रहे थे?”
छोटन तिवारी गुम। उनकी आवाज बंद। जीभ
जैसे तालू से सट गई हो। बेचन ने नाचने के दौरान कई बार उन्हें छुआ था लेकिन ऐसी
सनसनाहट उन्हें कभी महसूस नहीं हुई थी। सस्ती क्रीम और पाउडर की खुशबू पसीने की
गंध से मिलकर मानो गदर मचा रही थी। छोटन तिवारी की आंख बंद होने लगी। बेचन ने अपने
हाथ खिड़की से बाहर निकाले और छोटन तिवारी के गाल मसल दिये- “बोलो ना
मेरे राजा।”
छोटन तिवारी तो मानो किसी उमड़ती नदी
में डूब-उतरा रहे थे। उनके गले से डूबती सी आवाज निकली- “नहीं-नहीं
बस ऐसे ही।”
“तो क्या
मुफ्त में ही दर्शन कर रहे थे पंडितजी। देखने में मजा आया ना?तो माल
निकालो?” बेचन अपने दीवानों की जेब से पैसा
निकालना जानता था।
छोटन तिवारी ने कुरते की जेब में हाथ
डाला। दस-दस के तीन नोट पड़े थे। सुबह में मंदिर में रामचरित मानस पढ़ने के दौरान
भक्तों ने दिये थे। छोटन तिवारी ने निकाले और बेचन के हाथ में पकड़ा दिये। बेचन ने
उनका हाथ पकड़कर कसकर दबा दिया। छोटन तिवारी के भीतर जैसे कुछ पिघला। दिल जोरों से
धड़का और ऐसा लगा कि उछलकर कलेजे के बाहर आ जाएगा। बेचन ने इठलाकर कहा- “शाम में
नाच देखने आओगे ना राजा......?”
छोटन का
मन किया कि किसी तरह कमरे का दरवाजा तोड़ दे और जाकर बेचन से लिपट जाए। वह कुछ कहते
तभी बेचन मुड़ा और हवाई चुम्बन उनकी उछाल कर उस तरफ दौड़ता हुआ चला गया जिस तरफ नाच
पार्टी के दूसरे कलाकार बैठे हुए थे। छोटन तिवारी का दिल बड़ी देर तक धड़-धड़ धड़कता
रहा और वे उसकी आवाज भी साफ सुनते रहे। शाम में उन्होंने न केवल मां के बक्से से
पैसे निकाले बल्कि आज पहली बार पूजाघर में रखे पैसे पर भी हाथ साफ किये।
नहाये-धोये और सबसे साफ कुरता-पाजामा पहनकर हरिनारायण सिंह के दरवाजे पर। उनके
पोते की शादी में वहीं नाच पार्टी का कार्यक्रम था।
नाच शुरू हुआ। नगाड़ा बजा और थिरकते
हुए बेचन लवंडा पहुंचा। लोगों के मुंह से आह निकल गई। बाप रे बाप। आज तो गजबे लग
रहा है। गुलाबी रंग का लहंगा तो हरे रंग की चोली। माथे पर सलमा-सितारे तो बाल में
गेंदा के फूलों का गजरा। उसने झुककर सबको सलाम किया और सधी हुई आवाज में गाना शुरू
किया- “सइयां मिलल बा अनाड़ी रतिया कइसे कटी
हो राम.........।”
गाने के दौरान वह उछलकर कभी इस कोने
में जाता तो कभी दूसरे कोने में। उसकी चपल आंखें एक-एक दर्शक के मनोभाव को ताड़ रही
थी। अचानक वह नाचता हुआ हरिनारायण सिंह की गोद में जाकर बैठ गया। छोटन तिवारी तो
जल कर रह गये। लेकिन करते क्या। साठ साल के बूढ़े हरिनारायण सिंह ने पचास का नोट
अपने दांत से पकड़ा और चेहरा बेचन की तरफ बढ़ाया। बेचन ने बड़ी अदा से वह पचास का नोट
अपने दांतों से पकड़ा और लहरा कर भागा। नाच जब अपने शबाब पर था तब बेचन ने छोटन तिवारी
की ओर देखा, मुस्कुराया और उनका हाथ पकड़ा। छोटन
तिवारी सकपका गये। लेकिन बेचन ने उनके हाथ को झटका दिया और वे लगभग उसकी बांहों
में आ गये। गांव के लड़कों ने नारा लगाया- “जीय-जीय
हो पंडीजी। लीजिये मजा।”
इसके बाद बेचन ने भोजपुरी फिल्म का
एक गाना शुरू किया- “गोरकी
पतरकी रे......।” गांव के
कुछ लड़के सीटी बजाने लगे तो कुछ ताली बजाने लगे। छोटन तिवारी को जोश आया और जैसे
भूल गये कि वे कहां आये हैं। वे भी पूरे मिजाज से बेचन के साथ थिरकने लगे। लोग
अवाक। छोटन तिवारी को क्या हो गया। लेकिन वह तो जैसे किसी और ही दुनिया में थे।
कमरे में बंद होकर नाचने का अभ्यास जैसे हावी हो गया। देखने वालों को लग रहा था कि
बेचन से ज्यादा छोटन की कमर लचक रही है। नौजवान देखकर मजा ले रहे थे तो बूढ़े
बुजुर्ग माथा पीट रहे थे। बेचन कभी चकित होकर उन्हें देखता तो कभी उनके साथ कदम
मिलाने लगता। नये लड़कों के मोबाइल फोन लहराने लगे और नाच के वीडियो बनने लगे। और
जब नगाड़े की थाप चरम पर पहुंच रही थी उसी समय बेचन ने छोटन को पकड़ा और उनके गालों
को चूम लिया। छोटन तिवारी ने भी उसे अपनी बांहों में कस लिया लेकिन बेचन उन्हें
ऐसे झटका दिया कि वे गिरते-गिरते बचे। नाच देखने वालों ने उन्हें पकड़ा। एक बूढ़े
आदमी ने धीरे से कहा- “क्या
छोटन तिवारी, ये क्या कर रहे हो? ब्राह्मण
कुल में जन्म लेकर लवंडा के साथ नाचते हो? पगला
गये हो क्या? घर परिवार की इज्जत बीच बाजार में
उछालते शर्म नहीं आती?”
छोटन तिवारी ने उसे कुछ नहीं कहा। वह
तो मानो एक दूसरी ही दुनिया में थे। एकदम गदगद। साथ के लड़के उनका उत्साह बढ़ा
रहे थे- “बाह रे बाबा बाह। तुम्हारे नाच के
आगे तो निरहुआ फेल है रे दादा। क्या नाचते हो? बेचना
भी आज समझ गया कि किसी नचनिया से पाला पड़ा है।”
लेकिन अगली सुबह उत्साह बढ़ाने वाली
नहीं थी। पूरे गांव में हल्ला हो गया कि बंसलोचन तिवारी का बेटा लवंडा के साथ नाच
रहा था। गांव में जितने लोगों के हाथ में मोबाइल फोन थे सबके पास छोटन तिवारी की
लहरदार नाच का वीडियो मौजूद था। तिवारीजी तक बात पहुंची तो सन्न रह गये। उनका मन
किया कि बस अभी जाकर गंगा में डुबकी मार ले और बाहर निकले ही नहीं। जहर-माहुर खाकर
जान दे दें। उन्होंने अपना सिर ऊपर किया और जैसे भगवान शंकर से बात करने लगे- “क्या
भगवान? ऐसा ही बेटा देना था? इससे तो
अच्छा निरबंसी ही रहते। अरे लूल-लांगड़ रहता तो कोई बात नहीं थी। लेकिन ये ऐसा
कुलबोरन दे दिये हैं कि पुरखों का भी पुण्य प्रताप डुबो रहा है।”
फिर उन्होंने हमेशा की तरह पूरे मन
से छोटन तिवारी की कुटाई शुरू की। छोटन तिवारी ने भी इस मार को इस भाव के साथ
ग्रहण किया कि ये तो होना ही था। अगले दिन से फिर बेचन के फेरा में। अब तो जब भी
कहीं बेचन का नाच होता छोटन तिवारी रातों में गायब हो जाते।
बंसलोचन तिवारी से किसी ने कहा कि
बेटे की शादी कर दो तो शायद सुधर जाए। पर-परिवार की जिम्मेवारी अच्छे-अच्छों को
राह पर ला देती है। उन्हें यह सलाह ठीक लगी। वैसे भी अगल-बगल के गांवों से अगुवा
आने लगे थे। तिवारीजी ने एक अच्छा परिवार देखकर शादी की बात चला ही डाली। देर भी
नहीं करना चाहते थे। कहीं देरी के चक्कर में बेटे के कर्मों की खबर आसपास के
गांवों में फैल गई तो उससे शादी कौन करेगा। बगल के गांव नरोत्तमपुर के अंगद
उपाध्याय की बेटी सातवी का इम्तहान पास करने के बाद सिलाई-कढ़ाई का काम सीख रही थी।
संस्कारी परिवार था। बंसलोचन तिवारी ने तय कर लिया कि अगले लगन में छोटन तिवारी की
शादी कर देनी है। छोटन तिवारी को तो इसका पता तब चला जब घर में तैयारी शुरू हो गई।
उन्हें बहुत खराब लगा लेकिन करते क्या? पिता के
सामने बोलने की भी उनकी हिम्मत नहीं थी। पिता के सामने पड़ने की भी कोशिश वे कम ही
करते थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। कभी-कभी वे अपनी दुल्हन के बारे
में सोचते। कैसी होगी? बेचन की
तरह होगी? उसकी तरह नाच पाएगी? और
उन्होंने एक दिन तय कर लिया कि वह अपनी होने वाली दुल्हन को देखने नरोत्तमपुर
जाएंगे। किसी से कुछ नहीं बताया। सुबह में ही साइकिल उठायी और सीधे नरोत्तमपुर की
राह पकड़ ली। नरोत्तमपुर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो चुकी थी। अब करें क्या? सीधे
अंगद उपाध्याय के घर कैसे जाएं? लोग
क्या कहेंगे? अगर बात बाबूजी तक पहुंच गई तो? गांव के
बाहर के स्कूल के अहाते में उन्हें चापाकल दिखाई पड़ा। एक लड़की चापाकल से पानी भर
रही थी। उन्होंने उसके पास पहुंचकर कहा- “जरा
पानी पिला दो। बड़ी प्यास लगी है।”
लड़की ने उन्हें गौर से देखा- “बाहर से
आ रहे हो क्या? किसके घर जाना है?”
“अंगद
उपाध्याय के घर। जानती हो उनको?”
“जानूंगी
क्यों नहीं?उनकी लड़की उर्मिला से तो मेरी दोस्ती
है। तुम उनके कौन लगते हो?”
छोटन तिवारी को लगा कि उनका काम हो
गया। उन्होंने धीरे से कहा- “रिश्तेदारी
है मेरी। बहुआरा से आ रहे हैं।”
“अच्छा?सुना है
उसी गांव में उर्मिला की शादी की बात भी चल रही है। कोई बंसलोचन तिवारी हैं। उनके
लड़के से।”
“हां-हां।
जानता हूं।”
“अभी तो
आएगी उर्मिला। वह जो घर हैं ना सामने वाला। उसी में सिलाई सीखने आती है। वह यहां
आएगी और हम दोनों यहां से घर जाएंगे।” लड़की ने
शक की निगाह से छोटन तिवारी को देखा।
“अच्छा-अच्छा।
ठीक है।” कहते हुए छोटन तिवारी स्कूल से निकले
और चुपचाप एक तरफ चल दिये। लड़की उन्हें देर तक जाते हुए देखती रही। छोटन तिवारी एक
तरफ गये और पीछे मुड़कर देखा। लड़की वापस पानी भरने में मगन हो गई थी। छोटन तिवारी
ने दूर खड़े होकर उस घर पर नजर जमा दी जिसके बारे में उस लड़की ने बताया था। कुछ ही
देर के बाद उस घर से एक लड़की निकली। छोटन तिवारी थोड़े और करीब आये ताकि उसका चेहरा
ठीक से देख सकें। पतली-दुबली और सांवली। पीले रंग की सलवार समीज। बालों में दो
चोटी और उन चोटियों में लाल रंग की रीबन। पांव में हवाई चप्पल और हाथ में दो-चार
चूड़ियां। उनके साथ खड़ी होती तो उनके कंधे तक आती। वह देर तक उर्मिला की तुलना बेचन
से करते रहे। उन्हें उस लड़की में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा जिससे उनका दिल धड़के। वे
थोड़ा और करीब आये। पानी भरने वाली लड़की उर्मिला से बात करने लगी। शायद वह उनके ही
बारे में बात कर रही थी क्योंकि उर्मिला ने उचक कर उस तरफ देखने की कोशिश की जिधर
छोटन तिवारी खड़े थे। छोटन तिवारी तुरत साइकिल पर बैठे और वापस गांव की तरफ निकल
गये।
पूरी रात बेचैन रहे छोटन तिवारी।
उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। वे बार-बार उर्मिला से बेचन की तुलना
करते और उन्हें लगता कि उर्मिला से शादी करके वे गलती करेंगे। वे तो बेचन के बगैर
जी ही नहीं सकते। बेचन और उसकी नाच के बगैर उनका जीवन कुछ भी नहीं। पूरी रात जागते
गुजरी और अहले सुबह मंदिर की तरफ निकल गये। सोचा, मंदिर
में थोड़ी देर बैठेंगे तो हो सकता है कि जी बहल जाए। अचानक उन्हें उधर से बचपन का
साथी उदय आता दिखाई पड़ा। मस्ती में चूर और झूमता हुआ। छोटन तिवारी ने हैरत से उसे
देखा- भोरे-भोरे कहां से चढ़ा लिया इसने?
“क्या
बाबा?रात सिकरौल नहीं गये ना?” उदय ने
मुस्कुराते हुए कहा।
“नहीं
तो। क्यों?” छोटन तिवारी ने चकित होकर पूछा।
“अरे
बाबा, रात प्रभुदयाल सिंह की बेटी की शादी
थी। बारात के मनोरंजन के लिए सुदर्शन की नाच पार्टी आई थी।”
सुदर्शन की नाच पार्टी? छोटन
तिवारी का दिल जोर से धड़का। तो क्या बेचन भी आया था? उनसे
कैसे चूक हो गई? उन्होंने
उदय की ओर बेचैनी से देखा।
उदय अपनी ही धुन में था- “क्या
बताएं बाबा। बेचन लवंडा इतना झूम के नाचा कि मन बाग-बाग हो गया। देह तोड़ कर रख
दिया एकदम से। लैला मजनूं वाला नाटक में लैला बना था। ऐसा रोल किया बाबा कि लोग
बाह-बाह करने लगे।”
उदय बोल रहा था और छोटन तिवारी योजना
बना रहे थे। सिकरौल माने यहां से पन्द्रह किलोमीटर का रास्ता। नहर पकड़कर जाओ तो दस
किलोमीटर पड़ेगा। साइकिल से जाने में दो घंटे में पहुंच जाएंगे। जल्दी करना होगा
वरना नाच पार्टी कहीं दूसरे गांव में ना निकल जाए। छोटन तिवारी उल्टे पांव अपने घर
लौटे, साइकिल उठाई और पूरी ताकत से पैडल
मारा। जोश में उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि उन्होंने कुछ खाया नहीं है और जेब में
पैसे भी नहीं है। बस केवल यह चिंता थी कि नाच पार्टी सिकरौल से निकल नहीं जाए।
सिकरौल पहुंचते-पहुंचते दिन के दस बज गये थे।
गांव के बाहर के स्कूल में ठहरी थी नाच
पार्टी। अब सब कुछ समेटा जा रहा था। पास में एक ट्रैक्टर खड़ा था। इस पर सामान
लादकर नाच पार्टी अगले गांव के लिए निकलने वाली थी। छोटन तिवारी ने अंदर झांका।
सुदर्शन ठाकुर पैसे का हिसाब-किताब कर रहे थे जबकि दूसरे लोग ढोलक-हारमोनियम आदि
ट्रैक्टर पर चढ़ा रहे थे। उन्होंने एक आदमी को रोका- “नाच
पार्टी यहां से कहां जा रही है?”
“यहां से
तो बक्सर जाएंगे। बक्सर से बस पकड़कर छपरा। वहां तीन दिन तक नाच होगा।” उस आदमी
ने सामान से भरा एक बड़ा बक्सा ट्रैक्टर के ट्रेलर पर रखा।
छपरा? वहां वे
कैसे जा पाएंगे। छोटन का दिल डूबता हुआ सा महसूस हुआ। उन्होंने आसपास देखा लेकिन
बेचन कहीं दिखाई नहीं पड़ा। उन्होंने सकुचाते हुए उस आदमी से पूछा- “और वह
कहां है? आपकी पार्टी का लवंडा।”
“कौन
बेचना?” वह आदमी जोर से हंस पड़ा। छोटन तिवारी
को घूरा और जोर से कहा- “अरे
कहां जाएगा?यहीं कहीं होगा? कह रहा था
कि तालाब में नहा कर ही कहीं निकलेंगे। वहीं कहीं होगा।”
छोटन तिवारी ने अपनी साइकिल वहीं खड़ी
की। एक आदमी से तालाब के बारे में पूछा और उधर लपके। तालाब ज्यादा दूर नहीं था।
छोटन ने वहां पहुंचकर चारो तरफ देखा। वहीं एक पेड़ के नीचे बैठा था बेचन। पता
नहीं किस सोच में था। छोटे-छोटे कंकड़ उठाकर तालाब में फेंक रहा था। छोटन तिवारी
उसकी तरफ बढ़े। कदमों की आहट से उसका ध्यान भंग हुआ और उसने छोटन तिवारी की तरफ
देखा- “अरे क्या बाबा? नरोत्तमपुर
में कैसे? कल नाच देखने आये थे क्या? लेकिन
दिखाई नहीं दिये?”
“नहीं।
कल आ ही नहीं सका। मुझे पता ही नहीं चला। वह तो आज सुबह पता चला तो भागते हुए यहां
आ गया।” छोटन तिवारी अपनी सांसों पर काबू
पाने की कोशिश कर रहे थे।
“क्यों?जवानी
मचल रही है क्या बाबा? लेकिन
अब कोई फायदा नहीं।” कहते हुए
लवंडा ने उन्हें अंगूठा दिखाया और फिर जीभ भी निकाल ली। उसने छोटन तिवारी का हाथ
पकड़कर अपने पास बैठा लिया और धीरे से कहा- “अब
हमलोग छपरा जा रहे हैं। वहां तीन-चार दिनों का नाच है। उसके बाद कहां जाएंगे पता
नहीं।” कहते हुए उसने लम्बी सांस ली। अचानक
उसने छोटन तिवारी के गले में हाथ डालकर उन्हें अपने एकदम करीब कर लिया।
“बेचन, तुमसे
एक बात कहनी थी।” छोटन
तिवारी ने झटके से कहा।
“कुछ गलत
काम के लिए मत कहना बाबा। मैं वैसा लवंडा नहीं हूं।” बेचन ने
गंभीरता से छोटन तिवारी का चेहरा देखा।
“नहीं-नहीं, ऐसी बात
नहीं है। वो क्या है कि मेरी शादी ठीक हो गई है। अगले महीने है।” छोटन
तिवारी एकदम गंभीर थे।
“मुबारक
हो बाबा। लेकिन ये तो खुश होने की बात है। बारात में हम ही नाचेंगे। चिंता मत करो
राजा।” कहते हुए बेचन ने उन्हें आंख मारी।
“लेकिन..........लेकिन.........मैं
शादी नहीं करना चाहता.......। .......मैं तो तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं।
.......हमेशा के लिए।” छोटन
तिवारी को अपने मन की बात कहने के लिए भीतर की सारी ताकत जुटानी पड़ी।
बेचन सन्न। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें हैरत
से और चौड़ी हो गईं। उसने जोर से कहा- “क्या........? पागल हो
गये हो क्या बाबा?.......... ये कह
क्या रहे हो? अरे घर जाओ।” कहते
हुए बेचन खड़ा हो गया। उसकी सांस तेज हो गई।
“नहीं-
नहीं। ऐसा मत कहो। मेरे लिए तुम्हारे बगैर रहना मुश्किल हो गया है।” छोटन
तिवारी ने बेचन का हाथ पकड़ लिया। उनकी आंख बछड़े की आंख जैसी हो गई थी। एकदम भरी
हुई।
“पागल मत
बनो बाबा। मेरे साथ कैसे रहोगे?” कहते
हुए बेचन पीछे हटा।
“मुझे भी
लवंडा बना लो। अपनी नाच पार्टी में रख लो। इस तरह हम दोनों साथ रहेंगे। मैं नाचना
सीख गया हूं। एकदम तुम्हारी तरह।” कहने के
साथ पागलों की तरह छोटन तिवारी थिरकने लगे। कमर लचका-लचका कर नाचने लगे।
बेचन कुछ कहता तभी नाच पार्टी का एक
आदमी आकर चिल्लाया- “अरे
बेचना, तुम्हारा नहाना खत्म हुआ कि नहीं रे।
अरे, ट्रैक्टर निकलने वाला है। जल्दी चलो
नहीं तो साले यहां पिपहरी बजाते रहना नरोत्तमपुर में।”
उसकी बात सुनते ही बेचन वहां से
भागा। छोटन तिवारी ने उसे पकड़ने की कोशिश की। लेकिन उसने झटका दिया और छोटन तिवारी
गिर पड़े। वे चिल्लाये- “निर्दयी
मत बनो बेचन। तुम्हारे बगैर मर जाएंगे हम।”
लेकिन बेचन सुनने के लिए रुका नहीं।
वह भागता चला गया। पीछे-पीछे छोटन तिवारी भी दौड़े। बेचन दौड़ता हुआ ट्रैक्टर पर चढ़
गया और ट्रैक्टर गड़गड़ाता हुआ बढ़ गया। बेचन ने मुस्कुराते हुए हाथ हिलाया- “घर जाओ
बाबा। तुम्हारी शादी में नाचने आएंगे।”
बेचन चला गया लेकिन छोटन तिवारी घर
नहीं लौटे। पता नहीं कहां गायब हो गये। एक दिन, दो दिन
और पूरे हफ्ता दिन गुजर गये। पहले तो पिता बंसलोचन तिवारी ने समझा कि कहीं दोस्तों
के साथ चला गया होगा। दो चार दिनों में वापस आ जाएगा। लेकिन छोटन नहीं लौटे। इसके
बाद खोज-बीन शुरू हुई। बहुआरा से लेकर बक्सर तक और बक्सर से लेकर कोलकाता और
दिल्ली तक। छोटन तिवारी का कहीं पता नहीं चला। बंसलोचन तिवारी तो पहले ही उन्हें
त्याग चुके थे। लेकिन मां कलपती हुई मर गई। बंसलोचन तिवारी भी चुपचाप मंदिर में
जाकर बैठ गये। महीने गुजरे और इसके बाद साल भी गुजर गया लेकिन छोटन तिवारी के बारे
में कुछ भी पता नहीं चला।
और तकरीबन चार साल के बाद। लोग
बंसलोचन तिवारी के साथ छोटन तिवारी को भूलने लगे। बेचन के नाच का जादू भी उतरने
लगा। एक तो उसकी बढ़ती उम्र और दूसरी तरफ नई नाच मंडलियां। अब तो कई नाच मंडलियों
में लड़कियां भी नाचने के लिए आने लगी थीं।
उस साल बक्सर में पशु मेला जबर्दस्त
लगा था। बहुआरा का उदय गाय खरीदने मेला में पहुंचा था। खरीद-बिक्री के दौरान पता
चला कि छपरा से कोई नाच पार्टी आई है। उसका लवंडा ऐसा नाचता है कि माधुरी दीक्षित
फेल है। गजब है। इतना गोरा और सुघर कि आदमी औरत छोड़ दे। उदय ने रात में रुकने और
नाच देखने का फैसला किया। बड़ा शामियाना और शामियाने में बना बड़ा सा मंच। उदय एकदम
आगे बैठा। नाच शुरू हुआ और नगाड़े की थाप पर पूरा शामियाना गूंजने लगा। थोड़ी ही देर
के बाद मंच पर नाचता हुआ आया लवंडा। गोरा रंग, पतली
देह, बड़ी-बड़ी आंख, ऊंची
नाक और पतले होंठ। लाल रंग का लंहगा और हरे रंग की चोली। माथे पर झिलमिल करते
सलमा-सितारे। उसने अपने होंठ दबाये और एक हवाई चुम्बन दर्शकों की ओर उछाला।
दर्शकों की भीड़ से सिसकारी उठी। उदय को लगा, उसने इस
लवंडा को कहीं देखा है। लेकिन कहां? नाच में? नहीं.....नहीं।
अरे........। ये कैसे हो सकता है? छोटन
तिवारी और लवंडा.....? नहीं.......।
ये कैसे संभव हो सकता है? वह आंखे
मल-मल कर देख रहा था। उधर मंच पर नाच रहे लवंडा ने उदय पर नजर डाली, मुस्कुराया
और आंख मार दी। फिर उसने सधे हुए अंदाज में सुर साधा- देहिया प्रेम अगिन में जल
कंचन हो गई......। उदय के माथे पर पसीने की बूंदे छलछला गई थी।
***
संपर्क- कमलेश, कोकर, रांची, झारखंड,
मो.- 09934994603, ईमेल-
kamleshbux@gmail.com
पेन्टिंग: सन्दली वर्मा.
बेहतरीन कहानी लगी।
जवाब देंहटाएं■ शहंशाह आलम
आभार भाई।
हटाएंबहुत दिनों बाद कहानी पढ़ी. बंधा ऐसे कि एक ही झटके में कामधाम छोड़ पढ़ गया. संवेदनाओं को तो आप खूब कुरेदते हैं. बधाई.
जवाब देंहटाएंआभार सर। आपका आशीर्वाद बना रहे।
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