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एक आम आदमी की डायरी- 1- संजय कुमार कुन्दन

 

        एक आम आदमी की डायरी- 1

आज से यह नया कॉलम शुरू कर रहा हूँ- एक आम आदमी की डायरी. पहले इस शीर्षक को ही साफ़ कर लें, उसके बाद शुरू होगी यह डायरी. दो शब्द जो बहुत स्पष्ट से दिखते हैं, स्पष्ट नहीं हो पा रहे- ‘आम’ और ‘डायरी’. और हाँ यह तीसरा शब्द ‘आदमी’ भी. ‘की’ की तो कोई बिसात ही नहीं.

आम मतलब एकदम आम यानी वही जो ख़ास नहीं. आम मतलब जिसको हम पहचानते हुए भी नहीं पहचान सकते. जिसकी कोई बिसात ही नहीं. जैसे ख़ास मतलब जिसको पहचान की ज़रूरत ही नहीं, जिसे सब पहचानते हैं लेकिन जो नहीं भी पहचानता हो वह नहीं पहचानते हुए भी नहीं पहचानने का दुःसाहस नहीं कर सकता. लेकिन आम के बारे में अब भी अवधारणा स्पष्ट नहीं हुई. क्योंकि यह ख़ास का उल्टा है, विपरीतार्थक शब्द है बल्कि इतना उल्टा है कि ख़ास के गाल पर एक उल्टे तमाचे की तरह है तो अगर कोई आम इस पहचान की परवाह नहीं करता कि उसे भी ख़ास की तरह पहचान की ज़रुरत ही नहीं तो क्या वह आम ख़ास हो जाएगा. और अगर वह आम ख़ास हो जाएगा तो क्या तो बाबा आदम के ज़माने से चले आ रहे मानव समुदाय के इस विशिष्ट वर्गीकरण की धज्जियाँ न उड़ जाएँगी.

देखिए, मैं आपको बहुत उलझा रहा हूँ लेकिन जब शीर्षक ही स्पष्ट न हो तो तो फिर विषयवस्तु या अंतर्वस्तु या कॉन्टेंट की ओर आपकी पारखी नज़र क्या ख़ाक जाएगी. फिर यह ख़ास को भले ही पहचान की ज़रुरत नहीं, भले ही अपने ज्ञान, या अपनी मूर्खता या अपनी गुंडई या अपनी दौलत या अपनी शक्ति की पराकाष्ठा के कारण उसे सब पहचानने लगे हों और सबकी ख़्वाहिश उसके साथ एक सेल्फ़ी लेने की हो, वह हर वक़्त अपनी टी आर पी बढ़ाने के फ़िराक़ में क्यों रहता है. ख़ास क्यों इस ग्रन्थि का शिकार बना रहता है कि उसकी पहचान बनी रहे. और इसके लिए वह ख़ुद भी सर के बल खड़ा हो जाता है और अपनी लोकप्रियता को जाँचने के लिए अपने चाहनेवालों से भी एक इशारे पर ऐसी एक से एक हास्यास्पद हरकतें करवाता रहता है जिसमे. सर्कस के बाघ, हाथी, घोड़े, नर्तकी, पहलवान सब के सब जोकर में तब्दील हो जाते हैं. तो आम की भी पहली परिभाषा कुछ जमी नहीं.

एक बहुत ही सरल परिभाषा कर आम की फिर दूसरे शब्द की ओर बढ़ते हैं. आम मतलब पिटनेवाला और ख़ास मतलब पीटनेवाला. यह हुई ज़रा ठोस बात. इतिहास में जिसने भी पीटा वह ख़ास और जो-जो पिटाया वह आम. भले ही वह किसी वर्ग, जाति, समूह, नस्ल या लैगिकता का हो.

अब डायरी. डायरी यानी दैनन्दिनी यानी रोजनामचा. रोज़ रोज़ की निजी घटनाओं को लिखना. सारी बातें न लिखें तो कुछ बातें, कुछ आवेग कुछ दुःख-सुख. निज मन की व्यथा का गोपनीय अंकन. जिससे दुःख को न बाँटनेवाले लोग कम से कम इठला न सकें. लेकिन फिर एक सवाल उठता है कि एक आम आदमी डायरी क्यों लिखेगा. उसे फ़ुर्सत ही नहीं. उसे तो अपने निहायत आम होने के बारे में भी सोचने की फ़ुर्सत नहीं. वह तो राजेश जोशी का ‘इत्यादि’ है. तो उसकी डायरी कैसे तैयार होगी और डायरी तो ख़ास लोग लिखा करते हैं. छपती भी है, तरह-तरह की भाषाओं में और प्रकाशकों की पौ बारह हो जाती है. एक आम आदमी में अपने ही दुःख को सही ढंग से अभिव्यक्त करने की सलाहियत भी नहीं जितना उसके दुःख को एक नेता, एक लेखक या एक कवि कर देता है.

इस कॉलम के शीर्षक में ही विरोधाभास है. लेकिन रुकिए, अभी ‘आदमी’ की व्याख्या छूटी हुई है. एक शायर ने की थी कभी- ‘फ़रिश्तों से बेहतर है इन्सान बनना, मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़ियादा.’ और आदमी है तो आस है, आदमी तो पहाड़ भी काट देता है चाहे फ़रहाद हो या दशरथ माँझी. तो शायद आम आदमी भी डायरी लिख सकता है.

आज तो चला गया बस इस शीर्षक की ही जाँच-पड़ताल में, कल से ज़रूर आपके लिए, भले ही आप आम हों या ख़ास, क़लमबन्द करूँगा नया कॉलम ‘एक आम आदमी की डायरी.’

                      ***    

संपर्क: sanjaykrkundan@gmail.com, मो. 8709042189

पेन्टिंग: सन्दली वर्मा 

        

टिप्पणियाँ

  1. पिटनेवाला और पीटनेवाला। यह कमाल का दर्शन है।

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  2. हम आशा करते हैं, छ: विधाओं से युक्त यह ब्लॉग हमें नई ताज़गी और उम्मीद से भरेगा। आम आदमी को परिभाषित करने के लिए आपका शुक्रिया।

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