दिवाकर कुमार दिवाकर |
सभी ज्वालामुखी फूटते नहीं हैं
अपनी बड़ी वाली
अंगुली से
इशारा करते हुए
एक बच्चे ने कहा-
(जो शायद अब गाइड बन गया था)
बाबूजी,
वो पहाड़ देख रहे हैं
न
पहाड़,
वो पहाड़ नही है
बस पहाड़ सा लगता है
वो ज्वालामुखी है, ज्वालामुखी
ज्वालामुखी तो समझते
हैं न आप?
ज्वालामुखी, कि जिसके अंदर
बहुत गर्मी होती है
एकदम मम्मी के
चूल्हे की तरह
और इसके अंदर कुछ
होता है
लाल-लाल पिघलता हुआ
कुछ
पता है,
ज्वालामुखी फूटता है
तो क्या होता है?
राख!
सब कुछ खत्म
बच्चे ने फिर अंगुली
से
इशारा करते हुए कहा-
'लेकिन वो वाला ज्वालामुखी नहीं फूटा
उसमे अभी भी गर्माहट
है
और उसकी पिघलती हुई
चीज़
ठंडी हो रही है, धीरे-धीरे'
अब बच्चे ने पैसे के
लिए
अपना हाथ बढ़ाते हुए
कहा-
'सभी नहीं फूटते हैं न
कोई-कोई ज्वालामुखी
ठंडा हो जाता है
अंदर ही अंदर, धीरे-धीरे'
मैंने पैसे निकालने
के लिए
अपनी अंगुलियाँ
शर्ट की पॉकेट में
डाला
'पॉकेट' जो दिल के एकदम करीब
थी
मुझे एहसास हुआ कि-
थोड़ा सा उभार यहाँ
भी है
जिसमे अभी भी गर्मी
है, थोड़ी सी
लाल-लाल पिघलती हुई
कोई चीज़
ठंडी हो रही है यहाँ
भी, धीरे-धीरे
वही ज्वालामुखी की
तरह
जो नही फूट पाया कभी
कि सभी ज्वालामुखी
फूटते नहीं हैं.
हाँ,
सभी ज्वालामुखी
फूटते नहीं हैं।
***
परिवर्तन
मेरे गाँव की
झोपड़ियाँ बदल गई हैं
पक्के मकानों में
धुआँ वाले चूल्हे का
स्थान
अब गैस चूल्हे ने ले लिया है
गलियों में अब भूत नहीं होते
क्योंकि-
कच्ची गलियाँ अब
नहीं रही
रोशनी देखकर शायद
वे भूत
कहीं दूर,
बहुत दूर भाग गए हैं
बहुत सी डायनें हुआ करती थीं कभी
लेकिन अब
अंधविश्वास का नारा
लगाया जाता है
चौपाल
अब खाली खंडर सा
लगता है
किसी को गप्पें हाँकने
का शौक नहीं रहा
और न किसी को
ताश पर बैठने का समय
है
कारण,
घर-घर में अब टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल है
जिसने तोड़ दिया है
रिश्तों को
सुना था-
'ढोलपहाड़ी' की पहाड़ियों से
कभी ढोल की आवाज़ आती
थी
और वो 'ओझाबाबा'
जो रातभर गलियों में
घूमते रहते
अब गाँव छोड़कर कहीं
चले गए हैं
ढोल की आवाज़
ग़ुम हो गई
रेलवे लाइन पर रहने
वाली भूतनियाँ
अब गाँव छोड़कर
शहर में
किराये के मकान में
रहने चली गईं
'सत्यनारायण' की जगह अब
'नगदनारायण' का गप्प होता है
मुझे लगा शायद
एक महान परिवर्तन
मेरे ही गाँव में हो
रहा था
कोई मेरी मूर्खता पर
खिलखिला कर हँसा
और उसने कहा-
'यह परिवर्तन सिर्फ़ इस गाँव मे नही
पूरे विश्व मे हो
रहा है
हमलोग चाँद पर जा
चुके हैं
परिवर्तन का तूफ़ान
मचा रहे हैं'
सच!
फिर भी मुझे लगा
शायद सबसे महान परिवर्तन
मेरे ही गाँव मे हो
रहा है
वर्षों बाद
जब मैं अपने गाँव
पहुँचा
सर रखने के लिए तकिया मिला
पहले 'गोदी' हुआ करती थी
मोटी छत से
बंद कमरे में
'फैन' घूम रहा था
पहले खुले आसमान में
दुपट्टे लहराया करते
थे
मुझे लगा
सबसे बड़ा परिवर्तन
हमारे मन मे ही हो
रहा है
लोग सिगरेट सा बन
गये हैं
जिसे बार-बार होंठो
से लगाकर
जूते के नीचे
कुचल दिया जाता है
बड़ी बेरहमी से
जिसके कुचले जाने पर
दिल को कोई दर्द
नहीं होता
आँखे नम नहीं होतीं
शायद
मैं भी महज़ एक
सिगरेट बन रहा हूँ
या शायद
सिगरेट ही बन गया
हूँ।
***
अंतिम विदाई
झूठे, फरेबों की वह बस्ती
लेकिन कुछ लोग रहते
थे उसमें-
सरल बनकर
मानों कीचड़ में जीते
हों-
कमल बनकर
कई चेहरे
कुछ सच्चे, कुछ झूठे
कुछ हँसते, कुछ रूठे
वो विदाई का दिन था
वो अंतिम विदाई
टेबल पर बिखरी थी
'डायबिटीज़' की दवाई
आँसुओ के
फूल बरस रहे थे
दिल का ऐसा हाल था
जैसे, मृग, मरुस्थल में
पानी के लिए तरस रहा
हो
बाजों की जगह
वो चूड़ियाँ बज पड़ी
थीं
कुछ टूटी
कुछ तोड़ दी गई थीं
वो विदाई का दिन था
वो अंतिम विदाई.
***
सम्पर्क: दिवाकर
कुमार दिवाकर, द्वारा स्व.राधा प्रसाद, प्रोफेसर्स कॉलनी, पो. फॉरबिसगंज,
ज़िला-अररिया(बिहार), मो. 7782045835, ई-मेल- diwakar0501@gmail.com
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