आलम ख़ुर्शीद |
1
याद करते हो मुझे सूरज
निकल जाने के बाद
चाँद ने ये मुझ से पूछा रात ढल जाने के बाद
मैं ज़मीं पर हूँ तो
फिर क्यूँ देखता हूँ आसमाँ
ये ख़्याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद
दोस्तों के साथ चलने
में भी ख़तरे हैं हज़ार
भूल जाता हूं हमेशा मैं संभल जाने के बाद
अब ज़रा सा फ़ासला रख
कर जलाता हूँ चराग़
तज्रबा हाथ आया हाथ जल जाने के बाद
एक ही मंज़िल पे जाते
हैं यहाँ रस्ते तमाम
भेद यह मुझ पर खुला रस्ता बदल जाने के बाद
वहशते दिल को बियाबाँ
से तअल्लुक है अजीब
कोई घर लौटा नहीं, घर से निकल जाने के बाद
***
2
हम पंछी हैं जी बहलाने
आया करते हैं
अक्सर मेरे ख़्वाब मुझे समझाया करते हैं
तुम क्यूँ उनकी याद में
बैठे रोते रहते हो
आने-जाने वाले, आते-जाते रहते हैं
वो जुमले जो लब तक आ कर
चुप हो जाते हैं
दिल के अंदर बरसों शोर मचाया करते हैं
चैन से जीना शायद हम को
रास नहीं आता
शौक़ से हम दुख बाज़ारों से लाते रहते हैं
आँखों ने भी सीख लिए अब
जीने के दस्तूर
भेस बदल कर आँसू हँसते गाते रहते हैं
कांटे बोने वालो तुम को
शर्म नहीं आती
फूल खिलाने वाले फूल खिलाते रहते हैं
जाने क्या तब्दीली आई
चेहरे में ‘आलम’
आईने भी अब मुझ से घबराते रहते हैं
***
3
पुरानी राह पर अपनी
नज़र जमाते हुए
मैं चल रहा हूँ नया रास्ता बनाते हुए
जलेगा सुबह तलक या हवा
बुझा देगी
ये सोचता ही नहीं मैं दिया जलाते हुए
सताने लगता है फिर ख़ौफ़
इक जुदाई का
बहुत ज़्यादा किसी के क़रीब जाते हुए
मेरी ज़बान ही खुलती
नहीं किसी सूरत
कोई भी हर्फ़े-गुज़ारिश ज़बाँ पे लाते हुए
झुके न इतना कभी दिल कि
सर उठा न सकूँ
मैं यह ख़्याल भी रखता हूँ सर झुकाते हुए
यक़ीन कैसे करूँ मैं अब
उस की बातों पर
जो बात करता नहीं है नज़र मिलाते हुए
गिराँ गुज़रती हैं ‘आलम’
शराफ़तें अपनी
किसी नज़र के तक़ाज़े से मुँह छुपाते हुए
***
4
बाद में रोना और अंजाम
पे हैरत करना
अपनी आदत है हर इक बात में उज्लत करना
ख़ूब ये शौक़ है इक पल
में उतरना दिल में
दूसरे पल ही भुलाने की हिदायत करना
जाने वालों ने कहाँ
मुड़ के कभी देखा है
घर की दीवारो-दरो-बाम का वहशत करना
ऐ मुहब्बत! तुझे
फ़ुर्सत जो कभी मिल जाए
मेरे कूचे की तरफ़ आने की ज़हमत करना
ग़र्क होते हुए सूरज को
किसी दरिया में
तुम ने देखा है कभी शाम का रूख़सत करना
देखना अब है यही रोज़
तमाशा ‘आलम’
अपनी आँखों से किसी ख़्वाब का हिजरत करना
***
5
इसी लिए तो किसी ने हमें बचाया नहीं
कि डूबते हुए हम ने उन्हें बुलाया नहीं
हमें था .खौफ़ कहीं यार
कम न हो जाएँ
सो मुश्किलों में किसी को भी आज़माया नहीं
ये खोए खोए से रहते हैं
क्यूँ हमेशा हम
किसी ने पूछा नहीं, हम ने भी बताया नहीं
न जाने कब से दरीचे
मेरे खुले ही नहीं
न जाने कब से इधर चाँद जगमगाया नहीं
बहुत दिनों से मिले ही
नहीं हैं हम ख़ुद से
बहुत दिनों से कोई शख़्स याद आया नहीं
अब उसकी फ़िक्र सताने
लगी हवाओं को
वो इक चराग़ जो हम ने कभी जलाया नहीं
किसी को याद भला हम ने
कब किया ‘आलम’
मगर जो याद हुआ हो उसे भुलाया नहीं
***
सम्पर्क: आलम खुर्शीद, 304, गुलशन
विहार, आलम गंज, पटना 800 007. मो. 8084095789,
ई-मेल- alamkhurshid9@gmail.com
ग़ज़ल संकलन का लिंक: https://www.amazon.in/dp/8194426413?ref=myi_title_dp
पेन्टिंग: सन्दली वर्मासन्दली वर्मा
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