ग़ज़ल
- ये उम्र यूं ही गुज़र गयी है कहाँ रखा है हिसाब अपनाकिसी ने पूछा के हाल क्या है यही रहा है जवाब अपना
- कोई चाहे जहां से पढ़ ले कोई भी बंदिश कहीं नहीं हैखुली हुई है किताबे -हस्ती ,खुला हुआ है ये बाब(1)अपना
जो देखते हैं वही लिखें क्या के खुद ही अपने खिलाफ़ जाएँहक़ीक़तें तो नहीं हैं वैसी के जैसा रौशन था ख़्वाब अपना - अगरचे बैठा हूँ अपने घर में, बरूनी(2) मुल्कों में बिक रहा हूँतिलिस्मी ताजिर(3) का दौर है ये के कैसे रक्खूं हिसाब अपनाजो मेरे दिल के क़रीबतर है मेरे मुखालिफ़(4) वही बशर(5) हैवो इसकी गर्मी से जल न जाए कहाँ रखूँ इज़्तराब(6)अपना
बहुत-ही हल्की सी रौशनी ये अँधेरे दिल में उतर रही हैज़रा सा चटखा अना(7) का पत्थर ,ज़रा हटा ये नक़ाब अपना - भला क्यूं ऐसे लरज़(8)रहा हूँ जो हुक्मे-हिजरत(9) हुआ है 'कुंदन'कहाँ गयी वो पुरानी आदत , कहाँ है खानाखराब अपना
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१.अध्याय २.बाहरी ३.जादुई व्यापारी ४.विरुद्ध ५.व्यक्ति ६बेचैनी ७.अहम् भाव
८.काँप ९.पलायन का आदेश .
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