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ग़ज़ल


  • ये उम्र यूं ही गुज़र गयी है कहाँ रखा है हिसाब अपना 
    किसी ने पूछा के हाल क्या है यही रहा है जवाब अपना 

  • कोई चाहे जहां से पढ़ ले  कोई भी बंदिश कहीं  नहीं   है 
    खुली हुई है किताबे -हस्ती ,खुला हुआ है ये बाब(1)अपना 

    जो देखते हैं वही लिखें क्या के खुद ही अपने खिलाफ़ जाएँ 
    हक़ीक़तें तो नहीं हैं वैसी के जैसा रौशन था ख़्वाब अपना 

  • अगरचे बैठा हूँ अपने घर में, बरूनी(2) मुल्कों में बिक रहा हूँ 
    तिलिस्मी ताजिर(3) का दौर है ये के कैसे रक्खूं हिसाब अपना 

    जो मेरे दिल के क़रीबतर है मेरे मुखालिफ़(4) वही बशर(5) है 
    वो इसकी गर्मी से जल न जाए कहाँ रखूँ इज़्तराब(6)अपना 

    बहुत-ही हल्की सी रौशनी ये अँधेरे दिल में उतर रही है
    ज़रा सा चटखा अना(7) का पत्थर ,ज़रा हटा ये नक़ाब अपना
     

  • भला क्यूं ऐसे लरज़(8)रहा हूँ जो हुक्मे-हिजरत(9) हुआ है 'कुंदन'
    कहाँ गयी वो पुरानी आदत , कहाँ है खानाखराब अपना 

     **************************************
१.अध्याय २.बाहरी ३.जादुई व्यापारी ४.विरुद्ध ५.व्यक्ति ६बेचैनी ७.अहम् भाव 
८.काँप ९.पलायन का आदेश . 

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