ग़ज़ल जो अहले-ख़्वाब थे वो एक पल न सो पाए भटकते ही रहे शब् भर ये नींद के साए एक मासूम-सा चेहरा था, खो गया शायद हमें भी ज़ीस्त ने कितने नक़ाब पहनाये वो सुन न पाया अगरचे सदायें हमने दीं न पाया देख हमें गरचे सामने आये गुज़रना था उसे सो एक पल ठहर न सका वो वक़्त था के मुसाफ़िर न हम समझ पाए हमें न पूछिए मतलब है ज़िंदगी का क्या सुलझ चुकी है जो गुत्थी तो कौन उलझाए हमारी ज़ात पे आवारगी थी यूं क़ाबिज़ कहीं पे एक भी लम्हा न हम ठहर पाए बस एक बात का 'कुंदन'बड़ा मलाल रहा के पास बैठे रहे और न हम क़रीब आये ****************************
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'
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