सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मैं और गद्य लेखन


आज से सोचा वो करूँ जो पिछले कई दशकों से सोचता आया कि करूँ लेकिन कर नहीं पाया. यानी कि कुछ गद्य लेखन यानी कहानी और उपन्यास को अपने अंजाम तक पहुँचाना. बक़ौल साहिर लुधियानवी अंजाम तक पहुँचा नहीं पानेवाले उन अफ़सानों को ‘ख़ूबसूरत मोड़’ देकर भी छोड़ नहीं पाया या शरतचन्द्र के पिता मोतीलाल की तरह कोई भी रचनात्मक कार्य शुरू करने के बाद बीच में ही छोड़ दिया. हालाँकि मैं उन नाविकों की क़द्र करता हूँ जो बीच दरिया में ही कश्ती डुबोने की जुर्रत करते आए हैं. फिर भी शर्मन-लिहाजन लगता है जीवन भर की इसकाहिली के इतिहास पर एकाध नॉवेल और कहानी-संग्रह पूराकर एक सवालिया निशान छोड़ जाऊँ.

अब अपने पक्ष में कोई तर्क पेश करना या कई तरह के बहाने पेश करना भी थोड़ा ठीक नहीं लगता. वैसे चाहूँ तो बहुत सारी शहादतें पेश कर सकता हूँ अपनी बेगुनाही को साबित करने के लिए जैसे कि वक़्त की कमी, ज़िन्दगी भर अपना और अपनों का पेट पालने के लिए किसी न किसी काम में लगा रहना जिसका अदब और सकाफ़त से कोसों दूर का वास्ता नहीं था, फिर जिस्मानी तौर पर थक जाना या माहौल, प्रोज राइटिंग के लिए सही माहौल नहीं मिल पाना, कई वजूहात हैं जो अदब और साहित्य को इस ख़ाकसार के किसी अज़ीम शाहकार से महरूम करती रहीं हैं.

लेकिन वजहें तो और भी हैं— मेरा ज़्यादातर वक़्त दोस्तों मुलाक़ातियों से मिलने-जुलने में बीता है. यह मेरा सबसे पसंदीदा काम है. फिर मैं पाबन्दी का दुश्मन हूँ. आपका मन रखने के लिए मैं किसी डिसिप्लिन में बंध जा सकता हूँ लेकिन मेरा मन कभी नहीं बंधता. जब डिसिप्लिन का वक़्त ख़त्म होता है तो मेरा मन ऐसे भागता है जैसे स्कूल की घंटी बजने पर बच्चे भागते हैं. यह और बात है कि अपनी नौकरी में मैं लापरवाह कभी नहीं माना गया, हमेशा वक़्त का पाबन्द रहा और आप समझ सकते हैं मैंने अपने मन पर कितने बड़े बड़े पत्थर बल्कि चट्टानें रखी होंगी.‘मैं जिसमें रात-दिन मश.गूल हूँ पूरी सदाक़त से, यही क्या मेरी दुनिया है, नहीं, ऐसा नहीं है’.

फिर मेरा दूसरा पसंदीदा काम है सोना और सोने के साथ ही सपने देखना शुरू कर देना. मैं किसी सो रहे आदमी को जगाना एक जुर्म समझता हूँ. क्योंकि सो रहा आदमी सपने देखता रहता है. वह जितनी देर सोता है सिवाय सपने देखने के कोई ग़लत काम नहीं करता. और सपने देखने वाली ग़लती मुझे बहुत पसन्द है. इस दर्जा पसन्द कि मैं सिर्फ़ सोते वक़्त नहीं बल्कि जागते वक़्त भी सपने देखता रहता हूँ. यह और बात है कि ये दोनों क़िस्म के सपने कभी ज़मीन पर नहीं उतरते  यानी इन ख़्वाबों की कभी ताबीर नहीं हो पाती.और इसलिए एक उम्र गुज़रने के बाद मैं इस बात को मानने लगा हूँ क्योंकि मैं हारना नहीं चाहता कि सबसे अच्छे ख़्वाब वही होते हैं जिनकी ताबीर नहीं होती. और कमाल यह है कि बड़े लोग, बड़े लोग से मेरी मुराद उनलोगों से है जो अपनी शख्सियत की वजह से नहीं बल्कि सामान, पैसे और ताक़त की वजह से बड़े माने जाते हैं, सपना भी बड़ा देखते हैं और छोटे लोग छोटा सपना. वैसे छोटे लोग ख़्वाब में भी ठेले पर भूँजा बेचने लग जाते हैं और बड़े लोग भूँजे की ब्रांडिंग कर महँगी कीमतों में बेचने का ख़्वाब देखने लग जाते हैं. बचपन में मुझे एक साँढ़ का सपना आता था. दरअस्ल यह ख़्वाब क़िस्तों में आता था.किसी क़िस्त में साँढ़ सड़क पर पीछा करता हुआ, किसी क़िस्त मेंकभीमैं स्कूल के वीरान टीचर्स रूम में साँढ़ के डर से क़ैद और लीजिए दरवाज़े की सिटकिनी ही ग़ायब, दरवाज़ा अधखुला और बाहर मेरे लिए इंतज़ार करता साँढ़.वैसे किसी भी सपने में साँढ़ न मुझे पकड़ पाया और न ही किसी सपने में मैं साँढ़ की मौजूदगी से बच पाया. शायद वह साँढ़ किसी न किसी शक्ल में उम्रभर मेरा पीछा करता आया है. न मैं उसकी गिरफ़्त में आ पाता हूँ और न ही वह मेरी ज़िन्दगी से दूर जाता है.

वैसे मैं अपने काहिलपने और सपने देखने की आदत के बारे में कह रहा था..होता यूँ है कि सारे काम निबटाकर मैं सोचता हूँ कि अब कुछ लिखा जाए. वही नस्रनिगारी यानी गद्य लेखन. देखिए, दिमाग़ तो एकदम सातवें आसमान पर रहता है- चेखव, मंटो से कम तो लिखना नहीं है, फिर तरह-तरह के ख़याल. अपनी ही ज़िन्दगी पर लिख लूँ, आस-पास के जितने किरदार रहे हैं उन्हीं के बारे में लिख लूँ, बस उन्हें एक कहानी में पिरोकर, थोड़ा अपनी ज़िन्दगी के तजर्बों को डाल दूँ. और उसके बाद शुरू होता है एहसासे-कमतरी. इस उम्र तक तजरबे के नाम पर पास में सिफर है. ज़िन्दगी में जो भी घटा, जितने भी किरदार मिले,उन सब को मिलाकर कोई साफ़-सुथरा उसूल या नियम नहीं बना पाया, कुछ जेनरलाइज़ नहीं कर सका कि ऐसा होने पर रद्दे-अमल ऐसा ही होगा या यह इस टाइप का आदमी है तो उसकी हरक़तें ऐसी ही होगी. हर घटना मुझे अबतक नई लगती है और हर आदमी नया. सो कोई तजरबा ही नहीं हुआ. इसलिए ज़िन्दगी में अबतक जो भी हुआ उन सब को मिलाकर, उनके ज़ोर पर यह नहीं कह सकता कि आदमी तजर्बेकार हूँ, मैंने ज़माना देखा है, ये बाल धूप में सफ़ेद नहीं किए (वैसे भी मेरे सर पर बाल नहीं के बराबर है और उन थोड़े बाल को भी डाई करता रहता हूँ सो सफ़ेदी दिखलाई नहीं पड़ती), वगैरह, वगैरह. फिर मेरी याद्दाश्त बेहद कमज़ोर है सो जिन अनगिनत लोगों से मैं मिला हूँ उनमें से नब्बे फ़ीसदी मेरी याद्दाश्त की गिरफ़्त से बाहर हैं और जो थोड़े से लोग बचे वे मेरी याददाश्त की बालकनी पर किसी गहरे कुहरे में टहलते रहते हैं- बेहद धुँधले.सो पास में तजरबा या किरदार की बड़ी क़िल्लत है तो कहानी और नॉवेल कैसे लिखा जाए. थककर सोचता हूँ कि डायरीनुमा कुछ लिखूँ. शुरू भी करता हूँ तो बस अपने बारे में. वही नाकामी, फिर एक नए सिरे से ख़ुद को मुनज्ज़म करने का अहद. थोड़ा लिखकर मन उचटता है, चाय बनाकर पी लेता हूँ, एकाध सिगरेट पीता हूँ और टी वी का रिमोट हाथ में आ जाता है. हैरीपॉटर या अवेंजर्स वाली कोई फिल्म मिल गई तो एक तिलिस्म की दुनिया में खो जाता हूँ. सब कुछ ख़्वाब सा लेकिन यह ख़्वाब सा मेरे ख़्वाबों में आ नहीं पाता क्योंकि अपने ख़्वाब तो वही हैं- छोटे लोगों के ख़्वाब. और फिर कितने दिन बल्कि महीने गुज़र जाते हैं और ऐसा इत्तफ़ाक़ फिर आता है, वही नस्रनिगारी का उबाल. और हासिल होतेहैं डायरी के वही पुरानीबातों को दुहराते हुए पन्ने.

                              ***

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ग़ज़ल   जो अहले-ख़्वाब थे वो एक पल न सो पाए  भटकते ही  रहे शब् भर  ये  नींद  के साए  एक मासूम-सा चेहरा था, खो गया शायद हमें भी ज़ीस्त ने कितने नक़ाब  पहनाये  वो सुन न पाया अगरचे सदायें हमने दीं   न पाया  देख हमें  गरचे सामने आये  गुज़रना था उसे सो एक पल ठहर न सका  वो वक़्त था के मुसाफ़िर न हम समझ पाए    हमें न पूछिए मतलब है ज़िंदगी का क्या  सुलझ चुकी है जो गुत्थी तो कौन उलझाए  हमारी ज़ात पे आवारगी थी यूं क़ाबिज़  कहीं पे एक भी लम्हा न हम ठहर पाए बस एक  बात का 'कुंदन'बड़ा मलाल रहा  के पास बैठे रहे और न हम क़रीब  आये   ****************************

मो० आरिफ की कहानी-- नंगानाच

  नंगानाच                      रैगिंग के बारे में बस उड़ते-पुड़ते सुना था। ये कि सीनियर बहुत खिंचाई करते हैं, कपड़े उतरवाकर दौड़ाते हैं, जूते पॉलिश करवाते है, दुकानों से बीड़ी-सिगरेट मँगवाते हैं और अगर जूनियर होने की औकात से बाहर गये तो मुर्गा बना देते हैं, फर्शी सलाम लगवाते हैं, नही तो दो-चार लगा भी देते हैं। बस। पहली पहली बार जब डी.जे. हॉस्टल पहुँचे तो ये सब तो था ही, अलबत्ता कुछ और भी चैंकाने वाले तजुर्बे हुए-मसलन, सीनियर अगर पीड़ा पहुँचाते हैं तो प्रेम भी करते हैं। किसी संजीदा सीनियर की छाया मिल जाय तो रैगिंग क्या, हॉस्टल की हर बुराई से बच सकते हैं। वगैरह-वगैरह......।      एक पुराने खिलाड़ी ने समझाया था कि रैगिंग से बोल्डनेस आती है , और बोल्डनेस से सब कुछ। रैग होकर आदमी स्मार्ट हो जाता है। डर और हिचक की सच्ची मार है रैगिंग। रैगिंग से रैगिंग करने वाले और कराने वाले दोनों का फायदा होता है। धीरे-धीरे ही सही , रैगिंग के साथ बोल्डनेस बढ़ती रहती है। असल में सीनियरों को यही चिंता खाये रहती है कि सामने वाला बोल्ड क्यों नहीं है। पुराने खिलाड़ी ने आगे समझाया था कि अगर गाली-गलौज , डाँट-डपट से बचना

विक्रांत की कविताएँ

  विक्रांत की कविताएँ  विक्रांत 1 गहरा घुप्प गहरा कुआं जिसके ठीक नीचे बहती है एक धंसती - उखड़ती नदी जिसपे जमी हुई है त्रिभुजाकार नीली जलकुंभियाँ उसके पठारनुमा सफ़ेद गोलपत्तों के ठीक नीचे पड़ी हैं , सैंकड़ों पुरातनपंथी मानव - अस्थियाँ मृत्तक कबीलों का इतिहास जिसमें कोई लगाना नहीं चाहता डुबकी छू आता हूँ , उसका पृष्ठ जहाँ तैरती रहती है निषिद्धपरछाइयाँ प्रतिबिम्ब चित्र चरित्र आवाज़ें मानवीय अभिशाप ईश्वरीय दंड जिसके स्पर्शमात्र से स्वप्नदोषग्रस्त आहत विक्षिप्त खंडित घृणित अपने आपसे ही कहा नहीं जा सकता सुना नहीं जा सकता भूलाता हूँ , सब बिनस्वीकारे सोचता हूँ रैदास सा कि गंगा साथ देगी चुटकी बजा बदलता हूँ , दृष्टांत।     *** 2 मेरे दोनों हाथ अब घोंघा - कछुआ हैं पर मेरा मन अब भी सांप हृदय अब भी ऑक्टोपस आँखें अब भी गिद्ध। मेरुदंड में तरलता लिए मुँह सील करवा किसी मौनी जैन की तरह मैं लेटा हुआ हूँ लंबी - लंबी नुकीली , रेतीली घास के बीच एक चबूतरे पे पांव के पास रख भावों से तितर - बितर