सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अपने पिछले हमसफर की कोई तो पहचान रख



            ग़ज़ल (आलम खुर्शीद)

अपने पिछले हमसफ़र की कोई तो पहचान रख
कुछ नहीं तो मेज़ पर काँटों भरा गुलदान रख

तपते रेगिस्तान का लंबा सफ़र कट जायेगा
अपनी आँखों में मगर छोटा सा नखलिस्तान रख

घर से बाहर की फ़िज़ा का कुछ तो अंदाज़ा लगे
खोल कर सारे दरीचे और रौशनदान रख

नंगे पांव घास पर चलने में भी इक लुत्फ़ है
ओस के क़तरों से मत खुद को कभी अनजान रख

दोस्ती, नेकी , शराफ़त, आदमियत और वफ़ा
अपनी छोटी नाव में इतना भी मत सामान रख

सरकशी पे आ गई हैं मेरी लहरें ए खुदा !
मैं समुन्दर हूँ , मेरे सीने में भी चट्टान रख

_______________________________________
नखलिस्तान = हरियाली , रेगिस्तान में नज़र आने वाला हरा भरा हिस्सा
सरकशी = नाफरमानी , बगावत

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दिवाकर कुमार दिवाकर की कविताएँ

  दिवाकर कुमार दिवाकर सभी ज्वालामुखी फूटते नहीं हैं अपनी बड़ी वाली अंगुली से इशारा करते हुए एक बच्चे ने कहा- ( जो शायद अब गाइड बन गया था)   बाबूजी , वो पहाड़ देख रहे हैं न पहाड़ , वो पहाड़ नही है बस पहाड़ सा लगता है वो ज्वालामुखी है , ज्वालामुखी ज्वालामुखी तो समझते हैं न आप ? ज्वालामुखी , कि जिसके अंदर   बहुत गर्मी होती है एकदम मम्मी के चूल्हे की तरह   और इसके अंदर कुछ होता है लाल-लाल पिघलता हुआ कुछ पता है , ज्वालामुखी फूटता है तो क्या होता है ? राख! सब कुछ खत्म बच्चे ने फिर अंगुली से   इशारा करते हुए कहा- ' लेकिन वो वाला ज्वालामुखी नहीं फूटा उसमे अभी भी गर्माहट है और उसकी पिघलती हुई चीज़ ठंडी हो रही है , धीरे-धीरे '   अब बच्चे ने पैसे के लिए   अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा- ' सभी नहीं फूटते हैं न कोई-कोई ज्वालामुखी ठंडा हो जाता है अंदर ही अंदर , धीरे-धीरे '   मैंने पैसे निकालने के लिए   अपनी अंगुलियाँ शर्ट की पॉकेट में डाला ' पॉकेट ' जो दिल के एकदम करीब थी मुझे एहसास हुआ कि- ...

कमलेश की कहानी-- प्रेम अगिन में

  कमलेश            प्रेम अगिन में   टन-टन-टन। घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी छोटन तिवारी की। बाप रे। शाम में मंदिर में आरती शुरू हो गई और उन्हें पता भी नहीं चला। तीन घंटे कैसे कट गये। अब तो दोनों जगह मार पड़ने की पूरी आशंका। गुरुजी पहले तो घर पर बतायेंगे कि छोटन तिवारी दोपहर के बाद मंदिर आये ही नहीं। मतलब घर पहुंचते ही बाबूजी का पहला सवाल- दोपहर के बाद मंदिर से कहां गायब हो गया ? इसके बाद जो भी हाथ में मिलेगा उससे जमकर थुराई। फिर कल जब वह मंदिर पहुंचेंगे तो गुरुजी कुटम्मस करेंगे। कोई बात नहीं। मार खायेंगे तो खायेंगे लेकिन आज का आनन्द हाथ से कैसे जाने देते। एक बजे वह यहां आये थे और शाम के चार बज गये। लेकिन लग यही रहा था कि वह थोड़ी ही देर पहले तो आये थे। वह तो मानो दूसरे ही लोक में थे। पंचायत भवन की खिड़की के उस पार का दृश्य देखने के लिए तो उन्होंने कितने दिन इंतजार किया। पूरे खरमास एक-एक दिन गिना। लगन आया तो लगा जैसे उनकी ही शादी होने वाली हो। इसे ऐसे ही कैसे छोड़ देते। पंचायत भवन में ही ठहरती है गांव आने वाली कोई भी बारात और इसी...

एक आम आदमी की डायरी- 1- संजय कुमार कुन्दन

          एक आम आदमी की डायरी- 1 आज से यह नया कॉलम शुरू कर रहा हूँ- एक आम आदमी की डायरी. पहले इस शीर्षक को ही साफ़ कर लें, उसके बाद शुरू होगी यह डायरी. दो शब्द जो बहुत स्पष्ट से दिखते हैं, स्पष्ट नहीं हो पा रहे- ‘आम’ और ‘डायरी’. और हाँ यह तीसरा शब्द ‘आदमी’ भी. ‘की’ की तो कोई बिसात ही नहीं. आम मतलब एकदम आम यानी वही जो ख़ास नहीं. आम मतलब जिसको हम पहचानते हुए भी नहीं पहचान सकते. जिसकी कोई बिसात ही नहीं. जैसे ख़ास मतलब जिसको पहचान की ज़रूरत ही नहीं, जिसे सब पहचानते हैं लेकिन जो नहीं भी पहचानता हो वह नहीं पहचानते हुए भी नहीं पहचानने का दुःसाहस नहीं कर सकता. लेकिन आम के बारे में अब भी अवधारणा स्पष्ट नहीं हुई. क्योंकि यह ख़ास का उल्टा है, विपरीतार्थक शब्द है बल्कि इतना उल्टा है कि ख़ास के गाल पर एक उल्टे तमाचे की तरह है तो अगर कोई आम इस पहचान की परवाह नहीं करता कि उसे भी ख़ास की तरह पहचान की ज़रुरत ही नहीं तो क्या वह आम ख़ास हो जाएगा. और अगर वह आम ख़ास हो जाएगा तो क्या तो बाबा आदम के ज़माने से चले आ रहे मानव समुदाय के इस विशिष्ट वर्गीकरण की धज्जियाँ न उड़ जाएँगी. देखिए, मैं ...