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अपने पिछले हमसफर की कोई तो पहचान रख



            ग़ज़ल (आलम खुर्शीद)

अपने पिछले हमसफ़र की कोई तो पहचान रख
कुछ नहीं तो मेज़ पर काँटों भरा गुलदान रख

तपते रेगिस्तान का लंबा सफ़र कट जायेगा
अपनी आँखों में मगर छोटा सा नखलिस्तान रख

घर से बाहर की फ़िज़ा का कुछ तो अंदाज़ा लगे
खोल कर सारे दरीचे और रौशनदान रख

नंगे पांव घास पर चलने में भी इक लुत्फ़ है
ओस के क़तरों से मत खुद को कभी अनजान रख

दोस्ती, नेकी , शराफ़त, आदमियत और वफ़ा
अपनी छोटी नाव में इतना भी मत सामान रख

सरकशी पे आ गई हैं मेरी लहरें ए खुदा !
मैं समुन्दर हूँ , मेरे सीने में भी चट्टान रख

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नखलिस्तान = हरियाली , रेगिस्तान में नज़र आने वाला हरा भरा हिस्सा
सरकशी = नाफरमानी , बगावत

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