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इल्तुतमिश  की क़ब्र और पटना में ज़मीन का संकट                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  
दिल्ली आया हुआ हूँ .संदली ने कहा ,क़ुतुब मीनार ,इंडिया गेट ,लाल क़िला,लोटस टेम्पल दिखला दो.दरअसल उसे इन भारी-भरकम नामों का पता नहीं था.मैंने ही इंटरनेट पर इनकी तस्वीरें  दिखलाकर पटना में उसका माथा ख़राब किया था .अब भुगतो नतीज़ा.जब क़ुतुब मीनार से निकल रहा था तो देखा के इल्तुतमिश की क़ब्र भी थी वहाँ .थोड़ी जलन, हसद का एहसास हुआ .पटना में बहुत दिनों से कोशिश कर रहा हूँ के १२-१३०० स्क्वायर फीट भी ज़मीन ख़रीद कर मकान बना सकूं के सर पर एक छत हो और मेरी मौत के बाद मेरे ही साथ  बीवी-बच्ची को किराए के मकान से बाहर न निकलना पड़  जाए.लेकिन जेब को कितना भी खींचिए-तानिये आपके तलवे तक तो नहीं जा सकती .अब तो ज़रा भी खाली ज़मीन देखता हूँ उसमे अपने भावी मकान की कल्पना करने लगता हूँ.फ्रंट ३० फीट और लेंग्थ ३८ फीट .फिर आगे-पीछे ,दांये-बाएं कुछ फीट छोड़ना ही होगा .पूरी मशक्क़त और बाद में पता चलता है क़ीमत ही इतनी लगा रक्खी है के थोड़ा और आगे जाकर ज़मीन तलाश करनी होगी.फिर तो शहर से पूरा ही बाहर चला जाता हूँ .मेरी तंग जेब मुझे ख़ुद ब-ख़ुद शहर-बदर कर दे रही है .
और साहब ,इल्तुतमिश की क़ब्र देखी तो न तो मैं एक सैलानी की तरह रोमांचित हो सका ,न किसी इतिहासकार की तरह हिन्दुस्तान पर  ग़ुलाम वंश के सामाजिक,आर्थिक ,राजनीतिक प्रभाव का आकलन कर पाया और न ही संदली के पुरशफ़क़त बाप का बर्ताव कर पाया     बस वही ज़मीन मकान दिमाग़ पर छाने लगा और मुझे  इल्तुतमिश के ऐश से बड़ी जलन हुई .इतने बड़े इलाक़े में सोया हुआ है साहब बस इसलिए के एक बादशाह था .और यह ज़मीन भी कम है क्योंके जब ज़िंदा था तो पूरे हिन्दुस्तान पर सोता था .और आज की तारीख़ में भी बस राजा का चोला बदला है ज़मीन तो उतनी ही हथियाए हुए है .और जब बच्चे टाँगे हुए परेशानहाल सैलानियों को पसीना-पसीना लेकिन ख़ुश-ख़ुश अन्दर टहलते देखा तो बरजस्ता साहिर लुधियानवी की नज़्म के ये मिसरे होठों पर आ गए :--
 "मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलनेवाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता "

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