सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

२५ अगस्त २००१ की डायरी का एक पन्ना



रात के दो बजकर पांच मिनट हो रहे हैं.मैं हजारीबाग बस-स्टैंड 
के एक छोटे से होटल में बैठा हूँ .क्यों बैठा हूँ दो समोसे खाकर और 
एक कप चाय जमना के साथ पीकर .जमना राम २२साल का रिक्शावाला 
जो पास के हुरहुरू गाँव में रहता है और एक बजे बस से उतरकर जिससे 
मुलाक़ात हुई .जमना अभी निकल गया है सवारी की तलाश में ,कह गया
 है के तीन बजे आ जाएगा जब उसके अनुसार सुबह होने लगेगी और वह 
मुझे safely रेडियो-स्टेशन तक पहुंचा सकेगा जहां मुझे पंकज मित्रा से 
मिलना है.
तो क्यों बैठा हूँ मैं यहाँ ?६ बजे जमशेदपुर से चला था.सोचा था,ग्यारह बजे 
तक पहुँच जाऊंगा और पंकज के पास चला जाऊंगा और सो जाऊंगा.लेकिन 
यह किस्मत को मंज़ूर नहीं था .सवा बजे रात में सोचा ,क्यों ग़रीब को रात 
में ख़ामख्वाह परेशान करूँ जबके वह 'family' के साथ है.फैमिली अजीब शब्द 
है आजकल .फैमिली या परिवार पत्नी का पर्यायवाची हो गया है.'फैमिली साथ 
रख रहे हैं आजकल ,' 'देखिये ,ठहरूंगा नहीं ,फैमिली रिक्शे पर है ', 'डाक्टर के 
पास जा रहा हूँ ,फैमिली को जुकाम हो गया है ', 'आदमी तो अच्छा है लेकिन 
उसकी फैमिली कड़े स्वभाव की है '--शब्दकोष में 'फैमिली' या परिवार का एक 
अर्थ 'पत्नी'भी लिख देना चाहिए .तो पंकज फैमिली के साथ होता इसलिए सोचा 
रात होटल में गुज़ार लूं ,सुबह पहुँच जाऊंगा .नहा-धोकर थोड़ा presentable भी 
रहूँगा.शेव कर लूंगा .सुबह दाढ़ी बनाता हूँ ,शाम होते-होते खूँटियाँ निकलने लगती 
हैं वह भी उजली .थोड़े बाल उजले होने लगे थे सो दिल कड़ा करके पिछले साल के 
शायद ३० दिसंबर से डाई करना शुरू कर दिया .सो बाल अब ईश्वर की मेहरबानी से 
तो नहीं (क्योंके ईश्वर इस मामले में नामेहरबान हो गया है --उसने संकेत भेजने शुरू 
कर दिए हैं के बेटा जवानी की उमंग को थोड़ा कम करो ,बुज़ुर्गी आ रही है ,लेकिन मेरी 
युवा उमंगें पीछा ही नहीं छोड़तीं ,मुझसे बहुत छोटी उम्र के लोग मुझे मानसिक रूप से 
वृद्ध दिखलाई देते हैं जैसे कु.मु.या ध.सु.और मुझसे दो-तीन साल बड़े अ .क तो घोषित 
वृद्ध हो गए हैं )बस डायिंग कंपनी  की मेहरबानी से पूरे काले हैं .फिर मेरा यह सांवला 
रंग ,बदसूरत चेहरा ,शाम के बाद से चेहरे पर ये सफ़ेद खूंटियों के छींटे पर जाते हैं तो 
बड़ा horrible दिखने लगता हूँ या एकदम दयनीय --पिटा हुआ .सोचा था ,सुबह नहा-
धोकर 'शेव-वेव 'कर लूंगा फिर पंकज के पास इत्मिनान से जाऊंगा,उसे भी परेशानी नहीं
 होगी .
जमना से बात करता रहा और वह मुझे हजारीबाग की सड़कों पर घुमाता रहा,'झंडा चौक '
और न जाने क्या-क्या.सात-आठ होटलों में गया.घंटियाँ बजायीं ,दरवाज़े खटखटाए ,जमना 
ने आवाजें दीं लेकिन कोई दर न खुला .एक खुला भी तो डेढ़ -दो सौ रुपये मांगे मेरी पाकिट 
के बाहर.एक और था लेकिन हॉस्पिटल के जेनरल वार्ड की तरह--मृत्यु-शय्या पर पड़े और 
angel ,देवदूत और फ़रिश्तों का इंतज़ार करते बहुत सारे लोग .मेरे spirit को यह भी मंज़ूर
 नहीं था. 
जमना ने कहा ,बस-स्टैंड के होटल में बैठ जाऊं ,जब तीन-साढ़े तीन बजे सुबह हो जायेगी ,
चल दूंगा. हालांके मेरी समझ में नहीं आता के तीन-साढ़े तीन बजे सुबह कैसे हो जायेगी .
सुरक्षा का विचार मुझे बहुत नहीं लेकिन उतनी देर घूमने के बाद दो बजे पंकज को family
के साथ तंग करना मुझे उचित नहीं लगा तो सोचा रात ऐसे ही गुज़ार दूं .
इस बीच दो रसगुल्ले खा लिए और एक और चाय पी ली. इस छोटे-से होटल के मालिक को ,
जो अभी एक बेंच और एक कुर्सी सटाकर सो गया है,मेरा मात्र दो समोसे और एक चाय के बल 
पर रात गुज़ार देना,शायद नागवार गुज़रता.और अब तो उसके टेबल परे मैंने दफ़्तर ही खोल 
लिया है.
जमना की माँ है ,एक बहन और एक भाई है.बाप बाहर रहता है या लापता होगा.उसे बहन की 
शादी करनी है .जमना मेरे साथ बैठकर चाय पीना नहीं चाह रहा था .मैंने आग्रह कर उसे बैठाया .
उसने उसने समोसे नहीं खाए .इस होटल का मालिक ,जो बंगाली उच्चारण से बोलता है और बड़ी 
नरमी से बोलता है ,अपने नौकर पर बिगड़ रहा था --शायद बहुत छोटे-छोटे कारणों से .मैंने जमना 
को समझाया के मालिक नौकरों के साथ शायद ऐसा ही बर्ताव करते हैं .जमना ने  कहा,नहीं,कुछ 
मालिक अपने नौकरों को बहुत मानते हैं .मुझे लगता है ,शायद वे अधिक चतुर होंगे.जमना के मन 
में class-consciousness नहीं आया है .धर्मेन्द्र सुशांत ,अभ्युदय ,नवीन ,रामजी राय सब दुखी होंगे.
मैंने तो जमना को यह भी बतलाया के सारे ग़रीबों को एकजुट होना पड़ेगा और उनके ख़िलाफ़ की जा 
रही साज़िश को समझना होगा लेकिन वह कुछ नहीं समझा ........
********************************         

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ग़ज़ल   जो अहले-ख़्वाब थे वो एक पल न सो पाए  भटकते ही  रहे शब् भर  ये  नींद  के साए  एक मासूम-सा चेहरा था, खो गया शायद हमें भी ज़ीस्त ने कितने नक़ाब  पहनाये  वो सुन न पाया अगरचे सदायें हमने दीं   न पाया  देख हमें  गरचे सामने आये  गुज़रना था उसे सो एक पल ठहर न सका  वो वक़्त था के मुसाफ़िर न हम समझ पाए    हमें न पूछिए मतलब है ज़िंदगी का क्या  सुलझ चुकी है जो गुत्थी तो कौन उलझाए  हमारी ज़ात पे आवारगी थी यूं क़ाबिज़  कहीं पे एक भी लम्हा न हम ठहर पाए बस एक  बात का 'कुंदन'बड़ा मलाल रहा  के पास बैठे रहे और न हम क़रीब  आये   ****************************

मो० आरिफ की कहानी-- नंगानाच

  नंगानाच                      रैगिंग के बारे में बस उड़ते-पुड़ते सुना था। ये कि सीनियर बहुत खिंचाई करते हैं, कपड़े उतरवाकर दौड़ाते हैं, जूते पॉलिश करवाते है, दुकानों से बीड़ी-सिगरेट मँगवाते हैं और अगर जूनियर होने की औकात से बाहर गये तो मुर्गा बना देते हैं, फर्शी सलाम लगवाते हैं, नही तो दो-चार लगा भी देते हैं। बस। पहली पहली बार जब डी.जे. हॉस्टल पहुँचे तो ये सब तो था ही, अलबत्ता कुछ और भी चैंकाने वाले तजुर्बे हुए-मसलन, सीनियर अगर पीड़ा पहुँचाते हैं तो प्रेम भी करते हैं। किसी संजीदा सीनियर की छाया मिल जाय तो रैगिंग क्या, हॉस्टल की हर बुराई से बच सकते हैं। वगैरह-वगैरह......।      एक पुराने खिलाड़ी ने समझाया था कि रैगिंग से बोल्डनेस आती है , और बोल्डनेस से सब कुछ। रैग होकर आदमी स्मार्ट हो जाता है। डर और हिचक की सच्ची मार है रैगिंग। रैगिंग से रैगिंग करने वाले और कराने वाले दोनों का फायदा होता है। धीरे-धीरे ही सही , रैगिंग के साथ बोल्डनेस बढ़ती रहती है। असल में सीनियरों को यही चिंता खाये रहती है कि सामने वाला बोल्ड क्यों नहीं है। पुराने खिलाड़ी ने आगे समझाया था कि अगर गाली-गलौज , डाँट-डपट से बचना

विक्रांत की कविताएँ

  विक्रांत की कविताएँ  विक्रांत 1 गहरा घुप्प गहरा कुआं जिसके ठीक नीचे बहती है एक धंसती - उखड़ती नदी जिसपे जमी हुई है त्रिभुजाकार नीली जलकुंभियाँ उसके पठारनुमा सफ़ेद गोलपत्तों के ठीक नीचे पड़ी हैं , सैंकड़ों पुरातनपंथी मानव - अस्थियाँ मृत्तक कबीलों का इतिहास जिसमें कोई लगाना नहीं चाहता डुबकी छू आता हूँ , उसका पृष्ठ जहाँ तैरती रहती है निषिद्धपरछाइयाँ प्रतिबिम्ब चित्र चरित्र आवाज़ें मानवीय अभिशाप ईश्वरीय दंड जिसके स्पर्शमात्र से स्वप्नदोषग्रस्त आहत विक्षिप्त खंडित घृणित अपने आपसे ही कहा नहीं जा सकता सुना नहीं जा सकता भूलाता हूँ , सब बिनस्वीकारे सोचता हूँ रैदास सा कि गंगा साथ देगी चुटकी बजा बदलता हूँ , दृष्टांत।     *** 2 मेरे दोनों हाथ अब घोंघा - कछुआ हैं पर मेरा मन अब भी सांप हृदय अब भी ऑक्टोपस आँखें अब भी गिद्ध। मेरुदंड में तरलता लिए मुँह सील करवा किसी मौनी जैन की तरह मैं लेटा हुआ हूँ लंबी - लंबी नुकीली , रेतीली घास के बीच एक चबूतरे पे पांव के पास रख भावों से तितर - बितर