मुझे बिलकुल पता है
के ये सारी क़वायद
शायरी को जन्म दे सकती नहीं
ये सब तो बस मशीनी दौर के
कुछ मसनुई सामान हैं जिनसे
भरम हो सकता है
सकाफ़त और अदब की राहों पे
क़ुमक़ुम सजाने का
मगर ऐसे हों क़ुमक़ुम
के जिनसे ऐसी कोई रोशनी
शायद ही निकले
जो रूहों को ज़िया दे
जो रोशन कर दे
सदियों के दिमाग़ों को
जो शायद रोक ले उस हाथ को
जो बस करने ही वाला क़त्ल हो
किसी मासूम बच्चे का
जो पैदा कर दे जज़्बा
किसी नंगे ठिठुरते जिस्म पे
इक गर्म-सी चादर को रखने का
मुझे बिलकुल पता है
के कितनी सदियों के शफ्फाफ़ जज्बों का
शीरीं खून पीकर
किसी इक ग़ार में सदियों से बैठे
वली की तरह कोई
किसी इक वज्द के
आलम में रहकर
शायरी का जन्म होता है
किलकारियां सुनने को मिलती हैं
मुसफ्फ़ा शायरी की
मुझे बिलकुल पता है
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