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लेकिन इन पत्थरों के पीछे से..............

इन दिनों मैं तो चटानो की ही
तामीर किया करता हूँ
पत्थरों को ही जमा करता हूँ
जहाँ हल्की सी भी दिखती है दरार
एक पत्थर को लगा देता हूँ
उससे भी मुतमईन दिल होता नहीं है शायद
और लगा देता हूँ कितने पत्थर
 
कान को बंद मैं करने की हूँ
करता कोशिश
शल किया करता हूँ हर लम्हा
समाअत  अपनी
सुन न पाऊं कोई हल्की भी सदा .
 
लेकिन इन पत्थरों के पीछे से
हल्की-हल्की हवा सी आती है
चीख सी इक दबी- दबी कोई
रात के पिछले पहर
पिछली कितनी शबो के अफसाने
गुजरे लम्हों की एक महक़ के तले
याद की एक दबी-दबी सी सदा
हाँ,इन्ही मुन्जमिद चटानो से
जैसे छन-छन के आती रहती है
 
कब तलक उनसे फेर लूँ नजरे
कब तलक कान अपने बंद करूँ
क्या कई  हाथ में फिर हैं पत्थर
दिल के सहरा में क्या फिर से कोई
मजनू आने  को है दीवानावार
 
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