ग़ज़ल
ख़्वाबों की मंजिल पे आकर मंजिल के कुछ ख्वाब दिखाए
हर लम्हा जीने की ख़ातिर हमने क्या-क्या ढोंग रचाए
देखो ,देखो गुलमोहर के फूल शजर पे फिर खिल आये
दामन भी फिर हमने फाड़ा ,फिर आसार जुनूँ के लाये
हम तो मुसाफिर थे अपनी तो क़िस्मत थी चलते जाना
इक लम्हा छाँव में रहकर हमने क्या-क्या रोग लगाए
तुम राजा हो ,हम हैं भिखारी ,तुम सुल्ताँ हो,हम मज़लूम,
जो किरदार मिला है जिसको डाल के अपनी रूह निभाये
तुम ताजिर हो या जादूगर इसको परखना खेल नहीं है
घर के अन्दर छुप के फंसे हम ,बाहर तुमने जाल बिछाए
जिस्म की गर्मी,सांस की ख़ुशबू,होंठ की ढंडक ,ज़ुल्फ की छांव
सहरा में दरिया के भरम में कोई अपनी जान लुटाए
किस नगरी में कहाँ से आकर खोली है दूकां अपनी
वैसे "कुंदन" बेफ़िक्रा है ,गाहक आये या ना आये
*******************************************
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें