ग़ज़ल
मकाँ में रह के अजब-सी ये लामकानी है
उतर सकी न वरक पे वही कहानी है
मैं आस-पास के लोगों -सा हो नहीं सकता
अभी भी आँख में लगता है कुछ तो पानी है
तेरे गुलाब-से होठों पे पत्थरों का अक्स
मेरे पत्थर -से बदन में कोई रवानी है
अपनी खुशियाँ समेत लूं ये जल्दबाजी है
सांवली शाम ने जाने की ज़िद जो ठानी है
चंद एहसास हैं लफ़्ज़ों के जो मोहताज नहीं
चंद अल्फ़ाज़ से जज़्बों की सरगिरानी है
हमारी ख़ुशियों पे तक़दीर के कड़े पहरे
हमारे पास फ़क़त एक बेज़ुबानी है
अपने बिखराव को हर लम्हा चूमता 'कुंदन'
ये इन्तशार किसी शख्श की निशानी है
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