ग़ज़ल
सहरा में गूंजती हुई बेनाम सदा हूँ
पत्थर की तरह वक़्त के सीने पे जमा हूँ
अब पास हिफ़ाज़त के लिए कुछ भी नहीं है
जंगल में ख्वाहिशात के मैं खौफ़ज़दा हूँ
मिट्टी हूँ तो ढल जाना है पैकर में मुझे भी
आज़ाद तमन्ना लिए हैरान खड़ा हूँ
लम्हाब लम्हा मुझसे ही फिसला मेरा वजूद
हर शख्श से अब अपना पता पूछता हूँ मैं
हर बार यही लगता है ये इब्तदा ही है
गरचे हुई इक उम्र के मैं घर से चला हूँ
ऐ ज़िंदगी ,चर्चे में रही तेरी सख़ावत
इक मैं के तेरे दर पे तो बेवजह पड़ा हूँ
'कुंदन'कभी आती थी ख़मोशी की सदा इक
अब शोर है वो बात कोई सुन न रहा हूँ
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