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ग़ज़ल 
सोना  नहीं  है  इंतज़ार  कर  के   ढले    रात 
ख़्वाबों की तिश्नगी से हर इक लम्हा जले रात    

आलम गुनूद्गी  का   लगाए    भले  ही   घात
आँखों को दस्ते- याद से हर वक़्त  मले   रात  

उन चंद-सी  आँखों पे है क़ायम   वक़ारे-शब
जिन जागती आँखों का लहू पी के पले   रात

होकर जवाँ   बेदारी-एशब   ऐसे लहक जाय
गुलमुहर की मानिंद अंधेरों में खिले  रात 

इन मखमली अंधेरों  में पोशीदा कोई चुप 
जैसे के रात से ही ख़मोशी  से मिले रात 

बेनाम से जज़्बों  की हवा आये  दफ़तन 
दरवाज़ा खुले और वो परदों सी हिले रात

 आने को जो है सुब्ह तो बेकल है  रात  भी 
तनहा न चले ,साथ हो "कुंदन"तो चले रात

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