कौन तन्हाई में आता है कहाँ आता है
सब तो अपने हैं मगर ये भी कैसा रिश्ता है
बोलता हूँ मगर मुझ जैसा गूंग कोई नहीं
जानता हूं कि यहाँ कौन किसकी सुनता है
उसे गुमाँ है कि इक भीड़ साथ चलती है
मुझे यक़ी है कि जो भी सफ़र है ,तन्हा है
सुब्ह की चाय में क्या जाने कितनी यादे हैं
शाम कि राह में कितने क़दम का मजमा है
वो जिनकी आँखों में पानी नहीं है क्या देखें
वो कह रहे है यहाँ दूर तलक सहरा है
जिस्म कहता है ये खत्मे -सफ़र है रुक जाएँ
रूह कहती है बहुत दूर अभी चलना है
बस उसी लम्हे को 'कुंदन' ने उम्र भर ढूँढा
जहाँ वो कह सके कुछ भी न उसको कहना है
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