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अब्र का एक मुख़्तसर टुकड़ा

आज मैं धूप में चला हूँ बहुत
राह में कोई गुलमोहर भी न था 
धूप में इक ग़ज़ब की हिद्दत थी
और बहुत दूर आसमानों  पर
अब्र का एक मुख़्तसर टुकड़ा
कुछ तसल्ली -सी दे रहा

था यूं 

जैसे के मेरी छोटी-सी बेटी 
मुझसे कहती है राक्षस जो कभी 
मुझपे हमला करे तो अपनी छड़ी
से वो ऐसा करेगी जादू कुछ 
(क्योंकि वो तो परी है नन्हीं इक)
जिससे तोते  की जाँ निकल जाए 
जिसमें बसती है राक्षस की जाँ 
और ऐसा वो कहके मुझसे तुरत 
प्यार से यूं लिपट जो जाती है 
जैसे के मेरी मुख़्तसर दुनिया 
सारे रंजो-अलम से खाली है 

आज लौटा हूँ जब थका-हारा
ज़हन में मेरे छोटा-सा टुकड़ा
हाँ,वो छोटा-सा टुकड़ा बादल का 
साफ़ वो आ रहा है कितना नज़र 
और जिस पर है नक्श नन्हीं परी 

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