ग़ज़ल
आजकल तो मैं बज़ाहिर भी बड़ा तनहा रहा
और ज़हन में बस गुज़श्ता याद का मजमा रहा
ज़िंदगी ने कैसे मंज़र मुझको दिखलाए मगर
कोई पूछेगा तो कह दूंगा के सब अच्छा रहा
मैं कोई दरिया न था जाकर समंदर में मिलूँ
जाने कैसी आस लेकर उससे मैं मिलता रहा
एक कोशिश थी छुपा लूं ख़ुद को थोड़ा ही मगर
एहतराम उसकी जो रंजिश का किया ,खुलता रहा
सच कहूं तो सच का लगता ही नहीं कोई वजूद
इसलिए ख़ामोश होकर उसके सच सुनता रहा
याद का भी जिस्म है,ख़्वाबों की इक ख़ुशबू भी है
जो मेरी आँखों से ओझल थे उन्हें छूता रहा
ज़िंदगी का ये सफ़र 'कुंदन' कटा इस सोच पर
शायद ऐसा हो ,इसी एहसास पे चलता रहा
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