नितांत अजनबी होने के बावजूद
अब,जबकि मुझे यहाँ से जाने का
सुल्तानी फ़रमान मिल चुका है
मैं जल्दी ही चला जाऊंगा यह शहर छोड़कर
अपने असबाब मैं समेटता जाऊंगा
और मेरी कोशिश रहेगी कि मेरा कुछ भी
इस कमरे में छूट नहीं जाय
फिर भी ऐसा कुछ-न-कुछ या शायद बहुत कुछ
बचा रह जायगा जो कम नहीं होगा
मेरी हस्बमामूल हस्ती का एहसास दिलाने के लिए
मसलन
आलमारी के एक कोने में फँसी
बीसों वर्ष पुरानी डायरी के
बिखरे पन्नों में दर्ज़ होगा -
मेरी जद्दो-जहद का लेखा -जोखा
दूसरे कोने में कागज़ के फटे टुकड़े पर लिखा मिले
किसी ग़ज़ल का प्यारा मिसरा
रद्दी के ढेर में शायद आपको मिले
तीसों वर्ष पूर्व मेरे नाम भेजे गए कच्चे और अधूरे
प्रेम पत्र के चंद अलफ़ाज़
कमरे के चप्पे-चप्पे पर दर्ज़ होगा
मेरे चलने,बोलने,हंसने और बतियाने का अंदाज़
जंगले की खिड़की पर टंगी होंगी मेरी अधूरी हसरतें
कभी तनहाई में सुनाई पड़े मेरे आहत सपनों की कराह
मेरे द्वारा रात-रात भर जाग कर
लिखी गयी पंक्तियों का राज़
फ्लैश बैक की तरह कौंधने लगे आपके ज़हन में
अथवा अबतक अव्यक्त रहे अरमान
मेरी आँखों से टपके आँसुओं की दास्तान
आपको सुनाना चाहें
तो मेरी गुजारिश है आपसे कि
आप उन्हें दुत्कारे नहीं
अपनापन से हौले-हौले उन्हें बुलाएं
उनसे बोलें बतियाएं
क्योंकि नितांत अजनबी होने के बावजूद
हम परस्पर जुड़े होंगे इस कमरे के ज़रिये
जो मेरा अतीत और आपका वर्तमान होगा --ब्रजकिशोर पाठक
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