मनोज कुमार झा की तीन कवितायें
प्रतीक्षा
वसंत के मुंह से तू ही ने तो कहा था
हम साथ-साथ पार करेंगे हर जंगल
मैं अब भी खड़ा हूँ वहीं पीपल के नीचे
जहां कोयल के कंठ में कांपता है पत्तों का पानी
अनुपस्थिति
तुम नहीं तो अब यहाँ मेरे हाथ नहीं हैं
एक जोड़े दस्ताने हैं
पैर भी नहीं
एक जोड़ी जूते की
देह भी नहीं
मात्र मांस का एक बिजूका जिसमें रक्त और हवाएं घूम रही हैं
निर्णय
स्वंय ही चुनने प्रश्न
और उत्तरों को थाहते धंसते चले जाना स्वप्नों के अथाह में .
कहीं कोई यक्ष नहीं
कि सौंपकर यात्रा की धुल उतर जाएँ प्यास की सीढ़ियाँ .
समय के विशाल कपाट पर अँगुलियों की खटखट
लौट-लौट गूंजती है अपने ही कानों में
ये घायल अंगुलियाँ अंतिम सहयात्री शरशैय्या -सी.
जितना भींग सका पानी में
बदन में जितना घुला शहद
जितना नसीब हुआ नमक
कौन कहेगा--कम है या ज्यादा
खुद ही तौलना
तौलते जाना
ज़रा सा भी अवकाश नहीं रफ वर्क का
और कोई सप्लीमेंट्री कॉपी भी नहीं .
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