05.10.2002 की एक ग़ज़ल
हम भी काम के शख्श हैं इससे उसको कुछ इनकार भी है
लेकिन उसके दिल में छुपी इक नफ़रत की तलवार भी है
सर को झुकाना शौक है उसका,सर को कटाना ज़िद अपनी
दुनिया का बाज़ार है जिसमें तख़्त भी है और दार भी है
स्याह अन्धेरा वक़्त है जिसमें जुगनू सा इक लम्हा है
और वो जुगनू है कैसा जो उड़ने को तैयार भी है
इक पागल को अपनाना भी ख़ुद है इक दीवानापन
गर ये बात समझता है पर वो ख़ुद से लाचार भी है
कौन करेगा मेरी वकालत ,कौन मेरा शाहिद होगा
सब हैं अपनी दौड़ में शामिल वक़्त की इक रफ़्तार भी है
लहर-लहर उलझाव बहुत है,साहिल का भी वादा है
हर कोई इस बात को भूला कोई दरिया पार भी है
माफ़ करो, वो जाता है अब कैसे भी वो रह लेगा
शह्र में तेरे अब 'कुंदन' की क्या कोई दरकार भी है
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