18.08.1983 की एक नज़्म
एक सुबुक-सा एहसास
एक एहसास फ़क़त एक सुबुक-सा एहसास
सीना-ए-वक़्त में यूं दौड़ता रहता है वो
जैसे सय्याल लहू लम्हों की रग-रग का हो
जैसे इक पाक-सी दोशीज़ा का शफ्फाफ़ ख़याल
जैसे इक ज़हने-मुरव्वत पे नदामत का मलाल
जैसे ख़्वाबों की तरबगाहों में मासूम-सा ख्वाब
दरिया-ए-नूर के लब पर कोई चांदी-सा हुबाब
सर्द कुहरे से निकलती हुई रख्शां आहट
एक बेवजह-सी,हल्की-सी नशीली दस्तक
स्याह रातों की खिजाँ पे कोई खिलता-सा कँवल
जैसे सन्नाटे की आवाज़ में तहलील ग़ज़ल
कितनी बेचैन लकीरों की मुलाक़ात न हो
एक तस्वीर की तकमील की सौग़ात न हो
या के तस्वीरे-जफ़ा फिर न बना जाए कोई
रंग की फिर से कोई तल्ख़ इनायात न हो --
गोशे-गुल में सबा चुपके से कह रही है अभी
एक एहसास फ़क़त एक सुबुक-सा एहसास
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बहुत अच्छा।आपकी नज्म मेरे मित्र शंकर जी को भी बहुत पसंद आई।
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