1o.12.1985 की एक ग़ज़ल
शाम की राहों पे फैलीं याद की परछाइयां
शौक़ का बोझल बदन लेने लगा अंगराइयां
अब तलक सरशार थे हम महफिले-अहबाब में
शाम अब ढलने लगी,रोशन हुईं तन्हाइयां
हम से आशुफ्तासरों का क़ाफिला सू-ए-हरम
फिर जुनूने-शौक़ की होंगी यहाँ रुस्वाइयां
ग़ैर शह्रों में मुझे ले जायेगी फ़िक्रे-मआश
दोस्तों ,याद आयेंगी अपनी ये बज़्मआराइयां
जो सतह पे तैरते रहते हैं उनको क्या पता
क्या है एहसासे-वफ़ा ,क्या इश्क की गहराइयां
ख़ुद को जिसपे साहिबे-महफ़िल समझ बैठे थे हम
वो सताइश तो फ़क़त थीं हौसलाअफजाइयां
दिल धड़कता ही चला जाएगा 'कुंदन' बेसबब
वुस अते -सहरा हो या रात की पह्नाइयां
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