प्लेटफार्म ( 21.03.1984)
आख़िरी ट्रेन जा चुकी है अब
फैलता जा रहा है सन्नाटा
प्लेटफारम की धुंधली रौनक़ में
चंद मुबहम से ख़ाके उभरे हैं
जैसे सदियों से बंद क़ब्रों से
अहदे-कुहना की बद्बुएं लेकर
लम्हे आसेब बन उभरते हों
फ़र्श पे सो रहे तमाम बदन
गठरियों में बदलते जाते हैं
न इनमें ख़म ,न ज़ाविये,न उभार
कोई चमक,न लताफ़त,न निखार
आख़िरी इक शिनाख्त है इनकी
गोश्त ज़िंदा हैं और गलीज़ हैं ये
खूब अर्जां हैं ,जिन्सी चीज़ हैं ये
फ़र्श पे जा-ब-जा हैं पीक के नक्श
बेख़बर उनपे सो रही है कोई
शायद पागल वो नीम-उरियां है
बेख़बर , बेख़बर ,वो बेऔसान
इतने जिस्मों के पेचो-ख़म से कोई
साफ़-सुथरा जवाँ मरद गुज़रा
और ज़रा दूर पर अँधेरे में
एक तनहा,अन्धेरा कोना है
अब वो दोनों उधर ही जाते हैं
प्लेटफारम की धुंधली रौनक़ से
मिट गए अब वो ख़ाका-ए-मुबहम
दरम्याँ इन गलीज़ जिस्मों के
सो रहे इक सियाह कुत्ते ने
बहुत हल्की -सी एक करवट ली
और फिर सट के एक इन्सां से
सो गया और बेख़बर होकर
******************
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें