22.11.1985 की एक ग़ज़ल
जैसे कटी इक और ये शब भी गुज़र गयी
ये और बात,ख्वाहिशे-ख्वाबे-सहर गयी
ऐसी थी बेख़ुदी मेरे दर पर के ज़िंदगी
आयी थी होशमंद मगर बेख़बर गयी
बेख़ुद हुआ जो शौक़ तो उभरे तेरे नुक़ूश
वहशत मुसव्विरी को पशेमान कर गयी
एक ग़म था जिसने मुझको सम्भाला है उम्रभर
इक थी ख़ुशी जो बरमला ग़ैरों के घर गयी
नीयत के साफ़ होने की जब भी है दी दलील
मेरी नज़र मुझे ही पशेमान कर गयी
अब तीरगी में जा के खुला है ज़िया का राज़
जबके नज़र के साथ ही ताबे-नज़र गयी
शाम आयी और मचलने लगे ये मेरे क़दम
तनहा चले जिधर भी मेरी रहगुज़र गयी
दिन अजनबी-सा मेरी बग़ल से गुज़र गया
रात आशना-सी मेरे मकाँ में ठहर गयी
महरूमियों से प्यार था,क़ुर्बत से इश्क़ भी
इस कशमकश में उम्र मज़े से गुज़र गयी
'कुंदन' रहे हैं रुसवा अगरचे तमाम उम्र
वो भी थी इक घड़ी के बड़ी मोतबर गयी
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