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26.12.1985 की एक नज़्म 
अन्धेरा 

आज फिर रात मेरे दिल में उतर आयी है 
कितनी सदियों के अँधेरे को लिए दामन में 
कोई सरगोशी,न आहट,न इशारा कोई 
कितना वीरान है बुझते हुए एहसास का पल 

फिर कोई ख़्वाब मरा,फिर कोई ख्वाहिश सिसकी 
फिर मेरी शिद्दते-एहसास कोई ख़ार बनी  
और नाज़ुक से किसी पाए-ताआलुक में चुभी 

दिल की तारीकियों का अब कोई मशरिक़ भी नहीं 
अब कोई सम्त है बाक़ी,न कोई राहगुज़र 
कोई ताज़ा किरन अलसाई हुई जिसपे के चलकर आये 

और अब सुब्ह की दोशीज़ा नहीं निकलेगी 
और अगर निकली भी तो पाँव में घुँघरू होंगे 
मसनुई होंगे तबस्सुम उसके 
रस्म भर होगा थिरकना उसका 

अभी हुई है मुकम्मिल वो साज़िशे-ज़ुल्मत 
रात के सर्द ,अँधेरे से किसी कमरे में 
चंद लम्हा हुए हैं 
सुब्ह ने  दम तोड़ दिया 

आज फिर रात मेरे दिल में उतर आयी है 

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