ग़ज़ल
ज़िक्र मेरा भी आया होगा , नहीं,नहीं, ये धोखा था
लेकिन जो भी अफ़साना था मुझसे मिलता-जुलता था
हमने लम्हे के पावों से इक लम्बी दूरी तय की
लेकिन देख कहाँ ये पाए ,कहाँ-कहाँ पे छाला था
कितनी तस्वीरें हैं देखी , कितने ख़त उलटे-पलटे
कितने दरिया आ के मिले पर दिल का समंदर प्यासा था
क्या कहते हो , उठ के चलें अब , छोड़ें कारोबारे-जाँ
ख़त्म करें हम ये अफ़साना , हमनें ही तो छेड़ा था
कुछ भी मुकम्मिल हो जाए तो उसकी लज़्ज़त जाती है
एक भी हसरत बर नहीं आई,तब ख़ुद को समझाया था
साहिल,दरिया,कश्ती ,मुसाफ़िर ,तूफाँ,मौजें और गिर्दाब
ये सब तो बस वह्मे-नज़र थे, सारा समंदर सूखा था
इक नन्हें-से हाथ ने छूकर कैसे उसको रोक लिया
वरना तेरी बज़्म में 'कुंदन'अब न ठहरनेवाला था
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