ग़ज़ल
फ़रेब देना है कुछ , कुछ फ़रेब खाना है
मुझे तो दुश्मनो-अहबाब से निभाना है
एक ही तीर है और एक ही निशाना है
गए जो चूक तो मेले से लौट जाना है
तमाम वादों को पूरा करे कोई तुक है
वो तो दरिया है है उसे सिर्फ बहते जाना है
अगर है जज्बों में शिद्दत तो क्यूं न हो रुसवा
ये क्या के फूंक कर हर इक क़दम बढ़ाना है
है पशोपेश के शानों पे एक ही सर है
इधर ये हाल के हरदम ही सर कटाना है
मुक़ाबले के किसी खेल को चलो ढूँढें
यहाँ तो घोड़े पे गदहे का ताज़ियाना है
नहीं जो दिखता है उसपर यक़ीन है 'कुंदन'
उसका अंदाज़ निहायत ही सूफ़ियाना है
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