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हमारी ये भूल है  

समाज में स्थापित लोग रोल मॉडल की तरह काम करते हैं.वे इस क़दर अनुशासन में रहते हैं कि उनके आचरण के द्वारा समाज में मूल्य स्थापित होते रहते हैं .एक मूल्य गंभीरता का भी है.मैं गंभीरता   के इस सामाजिक प्रदर्शन पर बड़ा अगंभीर हो जाता हूँ. विशेषकर साहित्यिक मित्र बड़ी गरिष्ट ,बड़ी उलझी हुई बातें करते हैं .अगर आप ज़रा भी हल्के नज़र आये कि उनकी बिरादरी से बाहर .गाँव -देहात में जात से बार देते हैं .यह जातिच्युत होने का मामला है.

और आदमी थोड़ा हल्का होना चाहता है.आम आदमी कितनी गंभीरता ओढ़े .आपने गाड़ी में सवार किसी अफसर का चेहरा या मंच पर बैठे हुए साहित्य -साधकों का चेहरा देखा है? गौर से देखिये.कितना तना हुआ,कितना गंभीर.और सारी बातें समाज में फैली हुई बुराईयों के विरुद्ध .हो सकता है उस वक़्त उनका  बाप मर रहा हो ,उनकी  बीवी ने सिनेमा जाने का प्रोग्राम बनाया हो या हो सकता है वे स्वयं तुरत ही किसी अवैध डेट पर जाने वाले हों.लेकिन इसका कोई रिफ्लेक्सन उनके चेहरे पर नहीं होगा.हाँ,अगर आप थोड़े स्वाभाविक हो गए कि उन्हें आपके हल्केपन का एहसास हो जाएगा और वे भविष्य के लिए आपको ब्लैकलिस्टेड कर देंगे . अभी हाल ही  में मैंने अपनी एक ग़ज़ल अपने एक गंभीर साहित्यिक मित्र के फ़ेसबुक के ग्रुप पर पोस्ट कर दी.मित्र का गंभीर साहित्यिक ज़ायका बिगड़ गया .उनका ग्रुप गंभीर साहित्यिक विमर्श के लिए था कोई हल्की गज़लबाज़ी के लिए थोड़े ही था.मेरे इस हल्केपन पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की और मैंने तुरंत माफ़ी भी  मांग ली.वास्तव में यह मेरी ग़लती थी.यह गंभीरता की स्थापित व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ थी .

लेकिन मैं क्या करूँ,भले मैं स्थापित न हो सकूँ,मैं ज़्यादा देर गंभीर नहीं रह सकता .इतनी सारी भावनाओं को दबा कर गंभीरता ओढ़े रहने से कुछ कब्ज़ियत का मामला बन सकता है.और इतनी चिंताओं (सब व्यक्तिगत चिंताओं से परे ) के प्रदर्शन के साथ कि वे अपनी ही लगने लगें ज़िंदा रहना मेरे लिए कठिन है .पता नहीं आप, मुस्कान अगर आये भी तो सिबाका की नपी-तुली मुस्कराहट चाहते  हैं या एक उन्मुक्त खिलखिलाहट .__

संजीदगी  से  गुफ़्तगू करना उसूल है 
हम हँस रहे हैं,चलिए हमारी ये भूल है 

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