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अगस्त, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
ग़ज़ल  हम उसके शह्र में कितने फ़साने छोड़ आए  ये एहतियात भी बरती न उसका नाम आए ख़िरद का ही रहा इलज़ाम उम्र भर हम पर  ये और बात के हम थे जुनूँ  के बहकाए   हमारी तनहारवी ने   ये हर घड़ी पूछा  भला वो कौन सी महफ़िल थी जिसको छोड़ आए  वो दौर था के ख़यालों में इक रवानी थी   अभी तो चाह कर आगे न बात बढ़ पाए  हमारा कौन मुखालिफ़ है इससे क्या मतलब  हम अपने हो भी सके हैं ,कोई ये बतलाए    रात की राह पे पसरी थी इस क़दर चुप्पी  के कोई ख़्वाब भी टूटे तो शोर मच जाए  हम अपने अहद को 'कुंदन' समझनेवाले थे  ख़राबे-ख़ाना भी रहकर कभी न पछताए    ***************************
ग़ज़ल   जो अहले-ख़्वाब थे वो एक पल न सो पाए  भटकते ही  रहे शब् भर  ये  नींद  के साए  एक मासूम-सा चेहरा था, खो गया शायद हमें भी ज़ीस्त ने कितने नक़ाब  पहनाये  वो सुन न पाया अगरचे सदायें हमने दीं   न पाया  देख हमें  गरचे सामने आये  गुज़रना था उसे सो एक पल ठहर न सका  वो वक़्त था के मुसाफ़िर न हम समझ पाए    हमें न पूछिए मतलब है ज़िंदगी का क्या  सुलझ चुकी है जो गुत्थी तो कौन उलझाए  हमारी ज़ात पे आवारगी थी यूं क़ाबिज़  कहीं पे एक भी लम्हा न हम ठहर पाए बस एक  बात का 'कुंदन'बड़ा मलाल रहा  के पास बैठे रहे और न हम क़रीब  आये   ****************************
ग़ज़ल  किसे ख़बर थी के  जो लोग दरम्याँ होंगे  यक़ीने- ज़ात की ख़ातिर वो इम्तहाँ होंगे   ज़मीं पे रेंग के काटी थी उम्र इस दम पर   आसमाँवाले कभी  उनपे  मेहरबाँ  होंगे   सुखन का हाल भी कुछ अपने लहू-सा होगा  बहे जो बेसबब अशआर रायगाँ   होंगे    वो जिनपे  जान  लुटाने का हौसला बांधा  ये बात तय है के वो ही उदू -ए -जाँ  होंगे  हुजूमे-कारवां में खो गए वो लोग  यहाँ  जिनपे इमकान था के मीरे-कारवां  होंगे   वो जिनके होठों पे होती नहीं है  जुम्बिश भी  वो लोग तय है ,समंदर से बेकराँ   होंगे   क्या यही सोच के शिद्दत को छोड़ दे 'कुंदन' ज़लील होना है लेकिन कहाँ -कहाँ होंगे  **************************
रतजगा कोई नयी बात नहीं   रतजगा कोई नयी बात नहीं मुझसे पहले भी तो  ये सानेहा गुज़रा ही है नींद के कितने सिपाही यहाँ हलाक हुए  शब् के इस हौलनाक मैदाँ में    कितनी ही आँखों में कांटे उभरे  कितने ख़्वाबों का आसरा टूटा  और सन्नाटों में गुज़रे लम्हे  और पलकों ने मुहज्ज़ब दूरी   नींद से क़ायम रक्खी  हादसे होते हैं  पर हादसा ये आम नहीं  फ़तह तो नींद की होती है  शब् के मैदाँ में  रात के सीने पे होता है  नींद का परचम  पर कभी ऐसा भी होता ही है  नींद आँखों से लिए कोई  चला जाता है  और फिर ख़्वाब के पनाहगुजीं रात के बेअमाँ ठिकानों में  कू-ब-कू ,बेसबब भटकते हैं  और फिर ये भी एक सच ही है  रतजगा कोई नयी बात नहीं   *********************