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ग़ज़ल  
जो अहले-ख़्वाब थे वो एक पल न सो पाए 
भटकते ही  रहे शब् भर  ये  नींद  के साए 

एक मासूम-सा चेहरा था, खो गया शायद
हमें भी ज़ीस्त ने कितने नक़ाब  पहनाये 

वो सुन न पाया अगरचे सदायें हमने दीं 
 न पाया  देख हमें  गरचे सामने आये 

गुज़रना था उसे सो एक पल ठहर न सका 
वो वक़्त था के मुसाफ़िर न हम समझ पाए  

हमें न पूछिए मतलब है ज़िंदगी का क्या 
सुलझ चुकी है जो गुत्थी तो कौन उलझाए 

हमारी ज़ात पे आवारगी थी यूं क़ाबिज़ 
कहीं पे एक भी लम्हा न हम ठहर पाए

बस एक  बात का 'कुंदन'बड़ा मलाल रहा 
के पास बैठे रहे और न हम क़रीब  आये  

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