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ग़ज़ल 

हम उसके शह्र में कितने फ़साने छोड़ आए 
ये एहतियात भी बरती न उसका नाम आए

ख़िरद का ही रहा इलज़ाम उम्र भर हम पर 
ये और बात के हम थे जुनूँ  के बहकाए  

हमारी तनहारवी ने   ये हर घड़ी पूछा 
भला वो कौन सी महफ़िल थी जिसको छोड़ आए 

वो दौर था के ख़यालों में इक रवानी थी  
अभी तो चाह कर आगे न बात बढ़ पाए 

हमारा कौन मुखालिफ़ है इससे क्या मतलब 
हम अपने हो भी सके हैं ,कोई ये बतलाए   

रात की राह पे पसरी थी इस क़दर चुप्पी 
के कोई ख़्वाब भी टूटे तो शोर मच जाए 

हम अपने अहद को 'कुंदन' समझनेवाले थे 
ख़राबे-ख़ाना भी रहकर कभी न पछताए   

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