ग़ज़ल
किसे ख़बर थी के जो लोग दरम्याँ होंगे
यक़ीने- ज़ात की ख़ातिर वो इम्तहाँ होंगे
ज़मीं पे रेंग के काटी थी उम्र इस दम पर
आसमाँवाले कभी उनपे मेहरबाँ होंगे
सुखन का हाल भी कुछ अपने लहू-सा होगा
बहे जो बेसबब अशआर रायगाँ होंगे
वो जिनपे जान लुटाने का हौसला बांधा
ये बात तय है के वो ही उदू -ए -जाँ होंगे
हुजूमे-कारवां में खो गए वो लोग यहाँ
जिनपे इमकान था के मीरे-कारवां होंगे
वो जिनके होठों पे होती नहीं है जुम्बिश भी
वो लोग तय है ,समंदर से बेकराँ होंगे
क्या यही सोच के शिद्दत को छोड़ दे 'कुंदन'
ज़लील होना है लेकिन कहाँ -कहाँ होंगे
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