ग़ज़ल
फिर अपनी ही शिकस्त से दो-चार हो गए
देखी जो बेबसी तेरी लाचार हो गए
उफ़ ये सिपाहे-ग़म के उमड़ते चले गए
लेने न पाए साँस के तैयार हो गए
बस इक ज़रा दरार पड़ी उसके यक़ीं में
हम अपनी ही नज़रों में गुनाहगार हो गए
तुम थे न हमारे के हमारी न थी हयात
बस दो सवाल उम्र के आज़ार हो गए
उस मोड़ पे तो तुमको उसे सौंपना ही था
दरिया के दरम्यान ही हम पार हो गए
रंग और नस्ल,ज़ात और मज़हब ,ज़रो-दस्तार
इक घर में आज कितने ही दीवार हो गए
सैय्याद के दाने की हवस तो न थी 'कुंदन'
दिल तोड़ें क्यूँ किसी का गिरफ़्तार हो गए
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