ग़ज़ल
क़लम पे,शोर है के,आजकल पहरा नहीं है
मगर क्या बात है ,होता है जो दिखता नहीं है
हमारा क़त्ल करके खूँबहा भी ख़ूब देता है
हमारे शह्र का क़ातिल अभी रुसवा नहीं है
गले में तौक़ ,पाँवों में बंधी ज़ंजीर है अब भी
अलग ये बात है ,मज़लूम कुछ कहता नहीं है
हमारा दर-ब-दर होना हमारी शान में शामिल
के छाँव में ठहरने को ये सर झुकता नहीं है
के ये तलवार और सर का पुराना है बहुत रिश्ता
चलन दारो-रसन का आजतक बदला नहीं है
अमीरे-शह्र से कह दो के वो जो राख पे ख़ुश है
भड़क उट्ठेगी चिंगारी ये अंदाजा नहीं है
फ़क़ीराना सिफ़त है,बेनियाज़ाना तआल्लुक है
के 'कुंदन'दिल से तो मिलता है पर रुकता नहीं है
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