ग़ज़ल
मेरी रुसवाई के अफ़सानों को लेकर आ गया
मुझसे पहले ही यहाँ मेरा मुक़द्दर आ गया
दिल में उट्ठा था के कोई प्यार से सहलाएगा
और सारे शह्र के हाथों में पत्थर आ गया
रात गहरी हो गई मैं अपने दुख़ गिनने लगा
देखता क्या हूँ के सूरज मेरे सर पर आ गया
बर्फ़ ने जब भी नदी में खो दिया अपना वजूद
हस्ती-ए-दरिया को गुम करने समंदर आ गया
मैं ही शह्रे-याद में इक शख्स था मेहमाँनवाज़
जो भी ठुकराया था सबका मेरे दर पर आ गया
कश्ती-ए-ख़स्ता पे दिल की वो अभी डूबा ही था
पासबाने-अक्ल की सुनकर सतह पर आ गया
वो जो कहते थे के 'कुंदन' छोडिये दीवानगी
राह पे मैं उनके ज़ीनों से उतारकर आ गया
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