ग़ज़ल
उचटी हुई बस एक नज़र और कुछ नहीं
तनहाइयों की राहगुज़र और कुछ नहीं
दिन भर की जुस्तजू का सिला सिर्फ़ तीरगी
उम्मीद की किरन का सफ़र और कुछ नहीं
मुब्हम से कुछ यक़ीन हैं,धुँधले से कुछ शकूक
इससे ज़ियादा अहले-नज़र और कुछ नहीं
इक चाय की दुकान पे क़ुर्बत ज़रा सी देर
इस दौर में ख़ुलूसे-बशर और कुछ नहीं
दरवाज़ा खुला,बैठे ,ज़रा चाय भी पी ली
'कुंदन' की दस्तकों का असर और कुछ नहीं
***********************
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें