ग़ज़ल
मुझमें रहकर मुझको तो आबाद कर जाओगे तुम
ख़ुद को खोने का मगर इक लुत्फ़-सा पाओगे तुम
एक दिन इस भीड़ में चेहरों की खो जाऊँगा मैं
कुछ थके-हारे -से तनहा शाम घर जाओगे तुम
है बिछड़ने का ये आलम मौसमों के दरम्याँ
ख़ुश्क लब पे ख़ुन्क-सा इक ज़ायक़ा पाओगे तुम
ज़िंदगी की ज़र्ब से जब चूर होगा हर गुमाँ
सबसे ज़्यादा अपनी हस्ती से ही कतराओगे तुम
पर कतर कर अब फ़रिश्ते आ गए बाज़ार में
मुतमइन होकर ज़मीर अब अपना तुलवाओगे तुम
इन ग़मों की मय से अब बिलकुल नशा आता नहीं
अब सुरूरे-ज़िंदगी ,साँपों से डसवाओगे तुम
आज लफ़्ज़ों में सिमट कर हर सदा गूँगी हुई
और 'कुंदन' कब तलक चीखोगे-चिल्लाओगे तुम
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