ग़ज़ल
ख़ुद से ख़फ़ा हूँ,तुझसे तो बरहम नहीं हूँ मैं
हूँ पास तेरे ,तुझमें मगर ज़म नहीं हूँ मैं
हालात के क़दमों पे अभी ख़म नहीं हूँ मैं
ये और बात शौक़े-मुजस्सम नहीं हूँ मैं
तुझसे भी है सुख़न मुझे,दिल से भी गुफ़्तगू
वो कह रहा हूँ जिसपे के क़ायम नहीं हूँ मैं
उड़ता हूँ गरचे मैं भी हवाओं के ज़ोर से
मैं दिल की ख़ाक हूँ,कोई परचम नहीं हूँ मैं
किस तरह मेरे अश्क तेरी आँख में झलके
लब हँस रहे हैं,दीद-ए-पुरनम नहीं हूँ मैं
लौट आऊँ कैसे अपनी मुसर्रत के बाग़ में
इक गुल हूँ निकाला हुआ,मौसम नहीं हूँ मैं
मुज़्तर हुआ तो बख़शी है दुनिया को ताजगी
खुशबू से अपनी ज़ात में कुछ कम नहीं हूँ मैं
'कुंदन' हलाक कैसे करेगी मुझे ये धूप
आँखों में नक़श ख़्वाब हूँ,शबनम नहीं हूँ मैं
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