ग़ज़ल
कोई झगड़ा है , न रंजिश ,न सरगिरानी है
पर अदावत तेरी तहज़ीब भी पुरानी है
एक क़िस्सा है जो पानी के वरक़ पे लिक्खा
लोग फिर कितने हैं आँखों में जिनके पानी है
कुछ मेरे सच हैं जिन्हें काश वो झुठला देता
वो जिसका पेशा ही सदियों से हक़बयानी है
कोई तो है जो मेरी पीठ पे हमेशा है
मैं जो अव्वल हूँ मेरा भी तो कोई सानी है
वो कौन आँख है हर लम्हा घूरती है मुझे
ये कैसा लम्हा है हर वक़्त इम्तहानी है
ये एक ख़दशा,ग़रीबी है इश्क़ है क्या है
के जिसकी दिल पे हमेशा से हुक्मरानी है
उसे बुला तो लिया है कहाँ वो ठहरेगा
न जाने कैसी ये 'कुंदन' की मेज़बानी है
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