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मश्क़े-सुख़न की ख़िज़ाँ में अचानक

न जाने ये कैसी अजब बेक़रारी 
के मश्क़े-सुख़न की ख़िज़ाँ में अचानक 
सूखे शजर पे 
खिल जाए कोई अल्फ़ाज़ का गुल 
के जिसकी दिलावेज़ ख़ुशबू का वो तीर 
हर दिल में उतरे 

मगर ज़िंदा रहने की है जो मशक़्क़त 
के क़ाबिज़ है हर एक लम्हे पे ऐसी 
हर एक लम्हा बेचैन इस क़ैद में है 
बहुत मुन्तज़िर है 
के ज़िन्दां के ये आहनी दर 
तो वा हों 
वो बाहर तो आये 
हवाओं का आज़ाद-सा लम्स उसके 
गालों को छू ले 
ठहर के वो एहसास का जायज़ा ले 
कोई शेर कह दे 

मगर दौरे-मेह्नत-ओ-सरमाया आख़िर 
कहाँ बख्श दे कोई आज़ाद लम्हा 
क़लम जिन्स है वो 
के बाज़ार के भाव बिकता नहीं है 

तो ऐसा करें हम 
के बेबस फ़ज़ाओं की इस दास्ताँ को 
दिलों में सिमटती हुई कहकशाँ को 
ज़िन्दां के इन वीराँ दीवारो-दर पे 
यहीं नक़्श कर दें 

अगर ख़्वाब की हो न ताबीर मुमकिन 
यही हम समझ लें 
के ख़्वाबों को देखेंगे हम तो यक़ीनन 
कई हाथ होंगे 
जो ख़्वाबों की इस दास्ताँ को लिखेंगे 
मदूँ वो करेंगे 
लहकती बहारों के कितने मुसाफ़िर 

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