ग़ज़ल
जफ़ा भी मैंने न की ,वो भी बेवफ़ा न रहा
हर एक रोज़ मिले, फिर भी राब्ता न रहा
उसे भी मुझसे बिछड़ने का ग़म ज़रा न हुआ
मुझे भी उसकी जफ़ाओं का आसरा न रहा
मैं अपने ख़्वाब की चादर में इस क़दर लिपटा
था मुन्तज़िर कोई ,एहसास ये ज़रा न रहा
ख़ुशआमदीद क़लम जज़्बों की न कर पाया
पलक भी चुभने लगी,अबके रतजगा न रहा
दयारे-ज़ात में अपना नफ़ी मैं ख़ुद ही रहा
ये और बात बज़ाहिर कभी बुरा न रहा
हज़ार जिस्म बदल के वो मुझसे लिपटा था
हवा में ,धूप में ,ख़ुशबू में ,फ़ासला न रहा
न जाने क्यूं ही अचानक हुआ है ख़ुश'कुंदन'
रहा सहा जो था दुश्मन से भी गिला न रहा
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